*इस संसार में जन्म लेने के बाद प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आध्यात्म का होना बहुत आवश्यक है | अध्यात्म को जीवन में उतारने के लिए मनुष्य को अपने शरीर को तपाना पड़ता है | तप के मार्ग पर आगे बढ़ना पड़ता है | बिना तपश्चार्य के शरीर सुदृढ़ नहीं हो सकता और जब तक शरीर सुदृढ़ नहीं है तब तक जीवन में आध्यात्मिकता का प्रसार कदापि नहीं हो सकता क्योंकि आध्यात्म एक महाशक्ति है और आध्यात्म रूपी महाशक्ति का मानव शरीर में ठीक तरह से अवतरण हो इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य का शरीर उस शक्ति को धारण करने के लिए योग्य एवं सक्षम हो | भागीरथ जी ने जब गंगा जी के लिए तपस्या की तो गंगा जी ने यही भगीरथ से पूछा था कि :- जब मैं नीचे उतरूंगी तब मेरे वेग को धारण कौन करेगा ? यदि मेरे को धारण न किया जा सका तो धरती में क्षिद्र हो जाएगा और मैं सीधे पाताल में चली जाऊंगी | भगीरथ ने वस्तुस्थिति को समझा और गंगा को धारण करने वाले सत्पात्र की खोज करते हुए भगवान शिव के पास पहुंचे | तब भगवान शिव ने अपनी जटा में गंगा को उतारा | विचार कीजिए यदि गंगा को धारण करने की पात्रता भगवान शिव में ना होती तो क्या गंगावतरण हो सकता था ? शायद कभी ना हो पाता | जिस प्रकार गंगा के बेग को संभालने में भगवान शिव सफल हुए उसी प्रकार अध्यात्म रूपी महाशक्ति के वेग को संभालने के लिए अपने शरीर को सर्वप्रथम सत्पात्र बनाना होगा | कोई भी लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अनेक कठिनाइयों से दो चार होना पड़ता है | अध्यात्म मार्ग का अर्थ मात्र पूजा - पाठ करना ही नहीं बल्कि अध्यात्म जीवन में उतारने के पहले मनुष्य को तप - त्याग और बलिदान का मार्ग अपनाना पड़ता है |*
*आज लोग अध्यात्म की बहुत सरल व्याख्या करते हैं , इसे बहुत ही सरल भाषा में समझा कर स्वयं को आध्यात्मिक सिद्ध करने का प्रयास करने वाले कुछ चंद लोग शायद आध्यात्म की वास्तविक व्याख्या जानते ही नहीं हैं | थोड़ी देर सतसंग करके , कुछ ग्रन्थों का अध्ययन करके स्वयं को आध्यात्मिक समझने व कहलवाने वाले लोग आज समाज में बहुतायत संख्या में देखे जा सकते हैं ! जो आध्यात्म का अर्थ तो नहीं जानते परंतु आध्यात्म पर प्रवचन खूब देते हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ऐसे लोगों से यह पूछना चाहता हूं कि यदि आध्यात्म मार्ग की वास्तविक प्रगति के लिए थोड़ा सा पूजा-पाठ ही पर्याप्त होता तो महाराज शिवि , दधीचि , हरिश्चंद्र , मोरध्वज , ध्रुव , प्रहलाद , राजा भर्तहरि , बुद्ध , महावीर , शंकराचार्य जैसे सभी धर्म प्रेमियों को कष्ट साध्य जीवन अपनाने और त्याग बलिदान के पथ पर अग्रसर होने की क्या आवश्यकता थी | इस संसार के सभी ईश्वरभक्तों , धर्मपरायणों , महामानवों और सत्पुरुषों को अपनी मनोभूमि की वास्तविकता की अग्नि परीक्षा देनी ही पड़ी है | कच्चा लोहा भट्ठियों में ही तो फौलाद बनता है | उसी प्रकार आध्यात्म पथ का पथिक बनने के पहले अपने शरीर को त्याग और तपस्या से मजबूत बनाना पड़ता है , क्योंकि जब तक शरीर मजबूत नहीं होगा तब तक आध्यात्म की शक्ति का वहन कदापि नहीं कर सकता |*
*आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर होने के लिए मनुष्य को त्याग और बलिदान का मार्ग सदा ही अपनाना पड़ा है | इसका और कोई विकल्प न कभी था और न भविष्य में हो सकता है |*