*इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य अपने सद्गुरुओं से ज्ञान प्राप्त करके आध्यात्मिक बनने का प्रयास करता है , और इस क्रम में वह ध्यान , समाधि , कुंडलिनी जागरण , आत्म साक्षात्कार , ईश्वरप्राप्ति , ब्रह्मज्ञान आदि की बातें करते हुए उस को आत्मसात करने का प्रयास करता है | वैसे यह करना कुछ भी गलत नहीं है परंतु अध्यात्म का व्यावहारिक पक्ष जाने बिना , इसके गूढ़ तत्व को समझे बिना कोरी वाक् विलास , बौद्धिक उछल कूद एवं कर्मकांडी रटन को कभी भी पूरा नहीं कहा जा सकता | अध्यात्म के शिखर पर पहुंचने से पहले मनुष्य को इसके प्राथमिक सोपानों को पार करना होता है | यह सोपान ही आगे की यात्रा की आधार भूमि तैयार करते है और इन्हीं पर आध्यात्म का महल खड़ा होता है | अध्यात्म का प्रथम सोपान ध्यान - समाधि नहीं बल्कि यम - नियम है | अपने तन , मन व स्वभाव की मूलभूत दुर्बलताओं का परिष्कार करते हुए जीवन में शांति , स्थिरता एवं संतुलन को साधना ही अध्यात्म का प्रथम सोपान है | बिना इनकी साधना के आध्यात्म के उच्चतर सोपान के विषय में सोचा भी नहीं जा सकता है | यम - नियम इसलिए आवश्यक है क्योंकि यदि मनुष्य शरीर से स्वस्थ नहीं है , अशक्त एवं निर्बल है और ऊपर से आलस्य भी है तो फिर ऐसे जीवन से कुछ अधिक आशा नहीं की जा सकती | आध्यात्म तो दूर की बात है भौतिक जगत में भी इससे कुछ बड़ा प्रयोजन नहीं सिद्ध हो सकता है | इसलिए यह समझने का प्रयास करना होगा कि अध्यात्म का शुभारंभ तो आत्म - अनुशासित जीवन चर्या एवं स्फूर्त नैतिकता से होता है | यदि आध्यात्म पथ का पथिक बनना है तो सबसे पहले स्वयं में मनुष्यता एवं नैतिकता का आरोपण करना होगा , क्योंकि यदि जीवन में मनुष्यता एवं नैतिकता नहीं है तो जीवन में उथल-पुथल मची रहेगी और अस्त-व्यस्त तथा दिशाहीन जीवन में आध्यात्म की चर्चा करना भी मूर्खता ही सिद्ध होगी |*
*आज प्रायः लोग भक्ति - भजन , ध्यान , सत्संग चर्चा , समाधि आदि में स्वयं को संलग्न करके आध्यात्मिक होने का दिखावा करते हैं , परंतु थोड़ी देर साधना करने के बाद उनकी पुनः वही दिनचर्या हो जाती है जिनका नैतिकता एवं मनुष्यता से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता तो विचार कीजिए ऐसे व्यक्तियों को आध्यात्मिक कैसे कहा जा सकता है | जिसका अपने मन के ऊपर नियंत्रण नहीं है , जो व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पाता वह आध्यात्म के पथ पर क्या चलेगा , क्योंकि मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि आध्यात्म के पथ पर चलने के लिए मनुष्य को सबल होना चाहिए और सबल वही कहा जा सकता है जिसने अपने मन को नियंत्रित कर लिया हो | यह सत्य है कि जो व्यक्ति अपनी दुर्बलताओं न्यूनताओं को समझने की क्षमता खो बैठा हो उससे आध्यात्मिक तो दूर सामान्य जीवन में संतुलित व्यवहार की आशा भी नहीं की जा सकती | ऐसी मानसिकता के साथ आध्यात्म के पथ पर की जा रही वंचना से सामूहिक जीवन में किन्ही सकारात्मक परिणामों की आशा नहीं की जा सकती , क्योंकि आध्यात्म के नाम पर स्वार्थकेंद्रित कृत्यों का सामूहिक उत्कर्ष से कोई लेना देना नहीं होता | जो भी मनुष्य अपने असंयम , आलस्य , आवेश , अनियमितता और अव्यवस्था की साधारण कमजोरियों को नहीं जीत सका वह षडरिपुओं (काम, क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार , मत्सर आदि) , असुरता के आक्रमण का मुकाबला कैसे करेगा ? संत , ऋषि और देवता बनने से पहले हमें मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि जब मनुष्य मनुष्यता को धारण करेगा तब उसमें नैतिकता स्वयं प्रकट हो जाएगी और नैतिकता जीवन में आने के बाद मनुष्य स्वयं के मन पर नियंत्रण करने में धीरे-धीरे सफल होने लगेगा | अन्यथा अध्यात्म का दिखावा मात्र करने से अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता |*
*यदि जीवन में अध्यात्म लाना है , स्वयं आध्यात्मिक बनना है तो सबसे पहले यह समझना होगा कि अध्यात्म का प्रथम सोपान है अच्छा मनुष्य बनना | जिस दिन मनुष्य स्वयं के लिए अच्छा बन जाता है उसी दिन वह आध्यात्मिक होने लगता है |*