*इस संसार में जन्म लेने के बाद ईश्वर के द्वारा दिए गए विवेक का आदर करके प्राप्त शक्ति का सदुपयोग करने में जीव सर्वदा स्वतंत्र है | यह स्वतंत्रता उसे ईश्वर से प्राप्त हुई है इसके अतिरिक्त जीव सर्वथा परतंत्र है | मानस में बाबा जी ने बताया है "परवस जीव स्वबस भगवंता" जिसका अर्थ है कि स्वतंत्र मात्र ईश्वर है जीव नित्स पराधीन है | वास्तव में स्वाधीन उसी को कहा जा सकता है जो ईश्वर के द्वारा प्राप्त विवेक का आदर करके सब प्रकार की चाहत से रहित हो गया हो , क्योंकि किसी प्रकार की चाह के रहते हुए कोई भी प्राणी अपने को स्वतंत्र नहीं कह सकता | जब तक मनुष्य का अंतर्मन अपवित्र है उसमें राग , द्वेष , और भोग वासना वर्तमान है तब तक वह स्वाधीन नहीं है | जब तक वह जिस काम को करना उचित नहीं समझता उसे भी करता रहता है और जिसे करना उचित समझता है उसे नहीं कर पाता तब तक स्वाधीन कैसे कहा जा सकता है ? प्राप्त अधिकार का दुरुपयोग करने वाला अज्ञानता पूर्वक भले ही अपने को स्वतंत्र समझे परंतु वास्तव में वह पराधीन ही है | जब तक मनुष्य अपनी प्रसन्नता के लिए किसी दूसरे व्यक्ति , पदार्थ , परिस्थिति और अवस्था को मानता रहता है तब तक वह अपने जीवन में दीन हीन और पराधीन ही बना रहता है , कभी भी वह स्वाधीनता का अनुभव नहीं कर सकता | यदि मन में पराधीनता है तो मनुष्य स्वाधीन कैसे बनेगा ? इसके विषय में हमारे सद्ग्रन्थ बताते हैं कि जब मनुष्य ईश्वर के द्वारा प्राप्त विवेक का सदुपयोग करके अपने बनाए हुए दोषों को हटाकर अंतःकरण को शुद्ध कर लेता है तब वह स्वाधीन हो जाता है अन्यथा जीवन भर पराधीनता में व्यतीत करता रहता है | प्रत्येक मनुष्य को स्वतंत्र जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए |*
*आज कहने को तो सभी स्वतंत्र हैं , हमारा देश स्वतंत्र है हमें कुछ भी करने का अधिकार है , परंतु विचार कीजिए क्या वास्तव में यही स्वतंत्रता है ? यहाँ स्वतंत्र होने के बाद भी मनुष्य मनचाहा कार्य नहीं कर सकता क्योंकि वह पूर्ण रुप से स्वतंत्र नहीं है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि स्वयं को स्वतंत्र कहने वाला मनुष्य किसी ने किसी प्रकार से पराधीन ही है | कोई माया के आधीन है , कोई अपने क्रोध के आधीन है , राग , द्वेष , अहंकार , ईर्ष्या , मत्सर आदि दोषों की अधीन होकर के मनुष्य स्वयं को स्वतंत्र कहता है | स्वतंत्रता तो वही कही जा सकती है जब मनुष्य इन षड्विकारों से स्वतंत्र हो | मनुष्य को अपनी ही बनाये हुये राग , द्वेष , अहंकार आदि दोषों का विचार पूर्वक निरीक्षण करके उनको हटाना चाहिए , जिससे उसके चित्त की शुद्धि हो सके | जिसका चित्त शुद्ध हो गया हो वास्तव में वही स्वतंत्र कहा जा सकता है अन्यथा कहने मात्र की स्वतंत्रता है | मनुष्य अपने ही बनाए हुए काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार आदि अवगुणों के पराधीन रहकर जीवन व्यतीत करता रहता है | साधक सदैव इन षड्विकारों से स्वतंत्र होने के लिए छटपटाते रहता है और जिस दिन उसको यह स्वतंत्रता मिल जाती है उस दिन उसका जीवन महान हो जाता है और वह पुरुष से महापुरुष बन जाता है | प्रत्येक मनुष्य को स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए परंतु यह स्वतंत्रता वाह्य जगत से नहीं है बल्कि आंतरिक विकारों से प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए | आंतरिक विकारों से स्वतंत्र व्यक्ति ही पूर्ण स्वतंत्र कहा जा सकता है |*
*स्वयं को स्वतंत्र कहने वाले जिस दिन अपनी नकारात्मक मनोवृत्तियों को मिटाकर सकारात्मक चित्तवृत्ति के साथ जीवन यापन करना प्रारम्भ करेंगे उसी दिन उनको स्वतंत्र माना जा सकेगा |*