*देवासुर संग्राम में राक्षसों से परास्त होने के बाद देवताओं को अमर करने के लिए श्री हरि विष्णु ने समुद्र मंथन की योजना बनायी | समुद्र मंथन करके अमृत निकाला गया उस अमृत को टीकर देवता अमर हो गए | ठीक उसी प्रकार इस धराधाम के जीवों को अमर करने के लिए वेदव्यास जी ने वेद पुराणों का मंथन करके श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना की | श्रीमद्भागवत महापुराण इस पृथ्वी लोक में निवास करने वाले मनुष्यों के लिए अमृत के समान है | जब महाराज परीक्षित को शुकदेव स्वामी श्रीमद्भागवत का रसपान कराने के लिए बैठे तब देवताओं ने भी इस दिव्य महापुराण को प्राप्त करने के लिए उद्योग किया था | अमृत कलश लेकर देवता उस सभा में उपस्थित हुए और शुकदेव स्वामी से कहां कि यह श्रीमद्भागवत महापुराण हमको दे दीजिए इसके बदले में यह अमृत महाराज परीक्षित को पिलाकर अमर कर दीजिए , परंतु शुकदेव स्वामी ने श्रीमद्भागवत महापुराण रूपी अमृत के सामने अमृत को भी तुच्छ माना और देवताओं को वापस कर दिया | जहां अन्य ग्रंथों में सन्यास , वैराग्य एवं वानप्रस्थ आश्रम के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति का उपाय बताया गया है वहीं श्रीमद्भागवत महापुराण ऐसा ग्रंथ है जिसमें गृहस्थ आश्रम को मान्यता दी गई है | योगियों को जो आनन्द समाधि में मिलता है गृहस्थ को वही आनन्द श्रीमद्भागवत से मिल सकता है | प्राय: मनुष्य मोह माया में लिप्त होकर गृहस्थाश्रम का त्याग नहीं कर पाते हैं ऐसे में भागवत कहती है की गृहस्थ आश्रम का त्याग करने की कोई आवश्यकता नहीं है , घर में रहकर भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है | संसार में रहना बुरा नहीं है बुरा है स्वयं में संसार का आ जाना | श्रीमद्भागवत महापुराण मानव जीवन के इसी अंतर को स्पष्ट करती है | स्वर्ग एवं नर्क इसी पृथ्वी लोक पर विद्यमान है यह अंतर स्पष्ट कर देती है श्रीमद्भागवत | स्वर्ग रूपी धरा को मनुष्य स्वयं नर्क के समान बना रहा है | वेदव्यास जी ने इस भागवत महापुराण की रचना कलयुग के जीवो के उद्धार के उद्देश्य ही की है , घर में रहकर भगवान को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है इसका वर्णन निष्काम भक्ति के माध्यम से श्रीमद्भागवत में मिलता है | यदि मनुष्य को अमर होने की लालसा है तो अमृत रूपी श्रीमद्भागवत महापुराण का रसपान करके ही संभव हो सकता है | ऐसा दिव्य ग्रंथ कोई दूसरा सनातन धर्म में या इस पृथ्वी लोक पर भी नहीं उपलब्ध है |*
*आज युग बीत जाने के बाद भी श्रीमद्भागवत महापुराण की दिव्यता अक्षुण्ण बनी हुई है | भागवत का मूल विषय है निष्काम भक्ति | श्रीमद्भागवत में स्थान स्थान पर निष्काम भक्ति का उपदेश दिया गया है | निष्काम भक्ति का अर्थ क्या होता है इस पर यदि विचार किया जाए तो निष्काम भक्ति यही सिखाती है कि जो आप कर रहे हैं उसको यह मानें कि हमने कुछ नहीं किया | जहां कर्ता का बोध समाप्त हो जाए वहीं से निष्काम भक्ति का प्रारंभ हो जाता है | कुछ लोग कहते हैं परिवार में रहकर निष्काम भक्ति करना असंभव है उनसे मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इतना ही कहना चाहूंगा कि निष्काम भकि्त तो प्रत्येक मनुष्य करता है आवश्यकता है उसे जानने की | जिस प्रकार मनुष्य पुत्रियां उत्पन्न करके उन्हें पालता है , पढ़ाता है और एक समय ऐसा भी आता है जब अपने कलेजे के टुकड़े को विवाह करके विदा कर दिया जाता है | जिस बेटी को अपने हृदय से उत्पन्न करके बड़े प्रेम से मनुष्य पालता है एक दिन उसका वंश , कुल , परंपरा सब कुछ एक क्षण में परिवर्तित हो जाता है एवं उस बेटी से पिता का समस्त अधिकार भी समाप्त हो जाता है | यद्यपि मनुष्य यह जानता है कि मैं जिस बेटी को पाल रहा हूं , प्रेम से उसकी शिक्षा - दीक्षा पर अधिक से अधिक ध्यान दे रहा हूं एक दिन इस पर मेरा कोई अधिकार नहीं रह जाएगा परंतु फिर भी मनुष्य बिटिया के भविष्य को उज्ज्वल बनाने का प्रयास करते हुए एक दिन उसे अपने घर से विदा कर देता है | और उसे भूल जाने का प्रयास करता रहता है | यह निष्काम भक्ति का अनुपम उदाहरण है | सब कुछ करते हुए भी मनुष्य को कर्ता का बोध नहीं होता है और एक क्षण में सब कुछ त्याग देता है | जिस प्रकार पुत्री के लिए सब कुछ करने के बाद भी कुछ नहीं करने का भाव मनुष्य के हृदय में प्रस्फुटित होता है उसी प्रकार यदि संसार में किए गए अनेक कार्यों के प्रति मनुष्य के हृदय में कर्ता का बोध समाप्त हो जाए तो समझ लो कु मनुष्य में निष्काम भक्ति का उदय हो गया | भागवत का मूल विषय निष्काम भक्ति योग ही है जो मनुष्यों को परिवार में रहकर भी ईश्वर से मिलाने का उद्योग करते हुए अमर कर देने का प्रयास करती | परंतु आज यह मनुष्य का दुर्भाग्य है कि वह इस विषय पर गहनता से विचार नहीं कर पाता और अमृत का त्याग करके विषयरूपी मदिरापान करके उन्मत्त होकर पतनोन्मुखी होता जा रहा है |*
*भागवत रूपी अमृत का रसपान करके अनेकों लोग अमर हो गए हैं जिनका गुणगान आज भी बड़ी श्रद्धा एवं प्रेम के साथ किया जाता है | यदि अमर होने की कामना है तो श्रीमद्भागवत महापुराण रूपी कथामृत का रसपान मनुष्य को अवश्य करना चाहिए |*