*चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ इस दुर्लभ मानव जीवन को पाकर भी मनुष्य अपने कर्मों के जीवन में शांति की खोज किया करता है | जब मनुष्य जीवन के झंझावातों से / परिवार - समाज की जिम्मेदारियों से थक जाता है तो शांति पाने के लिए जंगल , पर्वतों , नदियों तथा एकान्त की ओर भागने का प्रयास करने लगता है परंतु शांति की खोज में परिवार - समाज का त्याग करने वालों को यह विचार करना चाहिए कि अकेले रहने या जंगल पर्वतों में निवास करने से शांति नहीं मिल सकती | यदि ऐसा होता तो अकेले रहने वाले जीव - जंतुओं को शांति मिल गयी होती और जंगल - पर्वतों में रहने वाली प्रजातियाँ कब की शांति प्राप्त कर चुकी होतीं | विचार कीजिए कि नदी या पर्वत सुहावने / मनमोहक अवश्य हो सकते हैं , कुछ देर तक विश्राम करने से स्वास्थ्य लाभ भी प्रदान कर सकते हैं परंतु शांति नहीं प्रदान कर सकते | इस संसार में मनुष्य चैतन्य है और प्रकृति जड़ | जड़ पदार्थ चेतन को शांति कैसे प्रदान कर सकते हैं यह विचारणीय विषय है | प्रश्न यह उठता है कि जब यह जड़ पदार्थ मनुष्य को शांति नहीं प्रदान कर सकते तो आखिर मनुष्य शांति की खोज करने जाय कहाँ ? इस पर मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का विचार है कि सबसे पहले मनुष्य को अशांति के कारणों पर विचार करना चाहिए | मनुष्य की अशांति का कारण है उसकी आंतरिक दुर्बलता | स्वार्थी की स्वार्थपूर्ति न होने पर उसका मन खिन्न हो जाता है , अहंकारी का क्रोध उसकी अशांति का कारण बनता है , असंयमी की तृष्णा कभी शांत नहीं होती है | इस प्रकार मनुष्य अपने ही कर्मों से अशांति में जीवन व्यतीत करता है | शांति उसी को प्राप्त हो सकती है जिसने अपनी मनोवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर ली हो अन्यथा संसार के किसी भी कोने में चले जाने के बाद भी मनुष्य को जीवन पर्यन्त शान्ति नहीं मिल सकती | घर छोड़ देने से , समाज का त्याग कर देने से शांति कभी नहीं प्राप्त हो सकती | यदि जीवन में शान्ति की कामना है तो मनुष्य को वह शांति संसार में नहीं बल्कि अपने भीतर खोजनी चाहिए और यह तभी सम्भव है जब मनुष्य अपनी आंतरिक दुर्बलताओं का विजय प्राप्त कर ले |*
*आज चारों ओर परिवार से लेकर समाज तक , देश से लेकर समस्त विश्व में अशांति ही अशांति दिखाई पड़ती है | शांति के दर्शन होना दुर्लभ हो रहा है | इसका प्रमुख कारण है मनुष्य की बढ़ी हुई कामनायें | जब यह कामनायें नहीं पूर्ण हो पातीं तो अनेक विकृतियों का जन्म होता है जो कि मनुष्य को शांति से बहुत दूर लेकर चली जाती है | घर से बाहर निकलकर शांति की खोज करने वालों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बता देना चाहता हूँ कि शांति की खोज करने कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हमारे महापुरुषों ने बाहर नहीं बल्कि अपने भीतर ही शांति को प्राप्त किया है | जिसने भी शांति प्राप्त की है उसे अंदर ही मिली है | अपने भीतर समय समय पर उत्पन्न होने वाली विकृतुयों को जब तक परास्त नहीं किया जायेगा तब तक शांति नहीं मिल सकती है | किसी पड़ोसी की उन्नति देखकर मनुष्य को अशांति हो जाती है , किसी का ऐश्वर्य / सम्पत्ति देखकर उसका मन अशांत हो जाता है | यहीं पर यदि मनुष्य अपने विचारों को नकारात्मक होने से रोक ले तो उसे अशांति नहीं हो सकती | काम , क्रोध , लोभ , अहंकार के कुचक्र में फंसा हुआ मनुष्य सदैव विक्षुब्ध ही रहेगा भले ही उसने अपना स्थान सुनसान एकांत में ही क्यों न बना लिया हो | इसलिए शांति की प्राप्ति के लिए मनुष्य को परिवार समाज को त्यागने की अपेक्षा अपने विकारों का त्याग करने का प्रयास करना चाहिए | जिस दिन ऐसा हो जायेगा उसी दिन मनुष्य शांति का अनुभव करने लगेगा |*
*जिस प्रकार एक मृग अपनी नाभि को भुलाकर सारे जंगल में कस्तूरी की खोज करते हुए भटका करता है उसी प्रकार मनुष्य भी अपने भीतर ही निवास करने वाली शांति को खोजने के लिए संसार भर में भटकता रहता है और उसे शांति नहीं मिल पाती |*