*इस धराधाम पर परमपिता परमात्मा ने जलचर , थलचर नभचर आदि योनियों की उत्पत्ति की | कुल मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ इस पृथ्वी पर विचरण करती हैं , इन सब में सर्वश्रेष्ठ योनि मनुष्य को कहा गया है क्योंकि जहां अन्य जीव एक निश्चित कर्म करते रहते हैं वही मनुष्य को ईश्वर ने विवेक दिया है , कोई भी कार्य करने के पहले विचार करने का अधिकार दिया है | अपनी इसी विचार शक्ति के कारण मनुष्य सभी योनियों में सर्वश्रेष्ठ हो जाता है | मनुष्य को ईश्वर ने विवेकवान तो बनाया ही साथ ही इतना स्वतंत्र कर दिया है कि वह जो चाहे सोच सकता है , जो चाहे कर सकता है , किसी के किए हुए कार्य पर मनचाही टिप्पणियां भी कर सकता है , परंतु इतना सब कुछ अधिकार देने के बाद भी उस परमपिता परमात्मा ने मनुष्य को स्वतंत्र नहीं किया है | मनुष्य विवेकशील प्राणी तो है और अपने विवेक से वह भविष्य के लिए अनेकानेक योजनाएं भी बनाया करता है परंतु यह आवश्यक नहीं है कि उसकी बनाई हुई योजना फलीभूत ही हो जाय | सर्वगुण संपन्न होने के बाद भी मनुष्य ईश्वर के अधीन है बड़ी-बड़ी योजनाएं ध्वस्त होती हुई देखी गई है | अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट महाराज दशरथ ने अगले दिन अपने सुपुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा कर दी परंतु उनका सोचा हुआ कार्य नहीं हो पाया और स्वयं परमात्मा को भी मानव होने के कारण वनवास भोगना पड़ा | कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य योजनाएं बनाता रहता है परंतु उन योजनाओं पर अंतिम निर्णय उस परम सत्ता का ही होता है | शायद इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य को सिर्फ कर्म करने का अधिकार है | इसका तात्पर्य यह नहीं हुआ कि मनुष्य योजनाएं बनाये ही ना क्योंकि बिना भविष्य की योजना बनाये मनुष्य कभी सफल ही नहीं हो सकता , लेकिन मनुष्य की कौन सी योजना फलीभूत होगी और कौन सी असफल इसका निर्णय ईश्वर के हाथ में होता है | यदि ईश्वर ने यह अधिकार भी मनुष्य को दे दिया होता तो आज मनुष्य स्वयं ईश्वर बन जाता | मनुष्य सप्ताह भर की तैयारियां बनाए रखता है परंतु कल क्या होगा इसका आभास किसी को भी नहीं होता शायद इसीलिए ईश्वर को सर्वशक्तिमान कहा गया है |*
*आज मनुष्य की वैचारिक शक्ति में वृद्धि हुई है पहले की अपेक्षा मनुष्य विवेकवान भी हुआ है परंतु मनुष्य का सोचा कुछ भी नहीं होता यह आज भी अटल सत्य हैं | लोग तरह-तरह के कार्यक्रमों के लिए योजनाएं बनाते हैं , कार्यक्रम की तिथि भी निश्चित कर दी जाती है , सारी रूपरेखा तैयार हो जाती है और मनुष्य दिन रात उन कार्यक्रमों के सपनों में खोया रहता है परंतु एक ही झटके में कुछ ऐसा हो जाता है कि मनुष्य की सारी योजनाएं धरी रह जाती हैं | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इस संसार में कब क्या होना है इसकी रूपरेखा ईश्वर तय करता है , बिना उसकी सत्ता के पत्ता तक नहीं हिल सकता | इस संसार में मनुष्य को भेजने के पहले ही ईश्वर के द्वारा यह निर्धारित कर दिया जाता है कि इसके द्वारा कब क्या कार्य संपन्न होगा , कब कहां जाना है , कब कौन मिलेगा और कब कौन से क्रियाकलाप होंगे | मनुष्य जानता भी है कि पल भर का ठिकाना नहीं है परंतु इसके बाद भी अनेकानेक योजनाएं बनाने में व्यस्त रहता है | यह सत्य है कि जीवन संभावनाओं का नाम है , संभावनाओं को कभी समाप्त भी नहीं करना चाहिए परंतु किसी कार्य के बिगड़ जाने पर या स्थगित हो जाने पर स्वयं को या किसी अन्य को दोषी मानना भी उचित नहीं है | ऐसी किसी भी परिस्थिति मनुष्य को यह विचार करना चाहिए कि हमने अपना प्रयास किया परंतु शायद अभी उचित समय नहीं आया था , क्योंकि ईश्वर की न्याय प्रक्रिया बहुत ही पारदर्शी होती है | इस संसार में कब क्या होगा यह सब कुछ पहले से ही निश्चित होता है मनुष्य तो मात्र कठपुतली की भांति नाचता रहता है और स्वयं को दोषी या भाग्यवान समझता रहता है | शायद इसीलिए कविकुल शिरोमणि बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिख दिया है :- "सबहिं नचावत राम गोसांईं" | ऐसे अवसर पर मनुष्य को अधीर ना हो करके यह विचार करना चाहिए कि मेरे नियत की गई तिथि पर यदि मेरा सोचा हुआ कार्य नहीं हो रहा है तो शायद ईश्वर ने जो समय निश्चित किया है उस समय पर मेरा सोचा हुआ कार्य और भव्य होने वाला है | सदैव सकारात्मकता के साथ ईश्वर के निर्णय को स्वीकार करना ही विवेकशीलता है |*
*मनुष्य आज एक दूसरे को मरने मारने पर उतारू है परंतु यह भी सत्य है कि ना तो कोई किसी के मरने से मरता है और ना ही कोई किसी को जीवन दे सकता है , क्योंकि जो भी करता है ईश्वर करता है मनुष्य निमित्त मात्र है | इसलिए इस विषय पर ज्यादा विचार ना करते हुए अपने कर्म को करते रहना चाहिए |*