*ईश्वर ने सृष्टि में सबके लिए समान अवसर प्रदान किये हैं , एक समान वायु , अन्न , जल का सेवन करने वाला मनुष्य भिन्न - भिन्न मानसिकता एवं भिन्न विचारों वाला हो जाता है | किसी विद्यालय की कक्षा में अनेक विद्यार्थी होते हैं परन्तु उन्हीं में से कोई सफलता के उच्चशिखर को छू लेता है तो कोई पतित हो जाता है | जबकि विद्यालय में सबको समान रूप से शिक्षा गुरु के द्वारा प्रदान की जाती है | ऐसा क्यों होता है ??? इस पर यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाय तो यही परिणाम निकलता है कि दैवीय अनुग्रह एवं गुरुकृपा समभाव में प्राप्त होने पर उसका लाभ वही ले पाता है जिसमें पात्रता होती है | कुछ भी प्राप्त करने के लिए मनुष्य को पात्र बनना पड़ता है बिना पात्रता के कुछ भी नहीं ग्रहण किया जा सकता | बादल सारी पृथ्वी पर समान रूप से बरसते हैं परन्तु जहाँ ऊँची चट्टानों पर एक बूँद नहीं ठहरती है वहीं पात्रता होने के कारण गड्ढे उसका जलवर्षा को स्वयं में समाहित कर लेते हैं | कुछ भी ग्रहण करने के लिए मनुष्य में ग्रहणशीलता का भाव अवश्य होना चाहिए | बरसात में कोई भी जलपात्र उल्टा होने पर जल से वंचित रह जाता है परंतु यदि पात्र सीधा और ग्रहणशील है तो वह जल से पूर्ण हो जाता है | बिना सत्पात्र बने इस संसार में कुछ भी प्राप्त कर पाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है | गुरु की कृपा भी उसी पर बरसती है जो ग्रहणशील एवं सत्पात्र हो अन्यथा अनेकों शिष्य नित्य ही आकर चले जाते हैं और उनको कुछ भी नहीं प्राप्त हो पाता है | एकलव्य की सत्पात्रता ने ही उसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाया था | यदि जीवन में गुरु की महत्ता है तो शिष्य की श्रद्धा , सद्भावना एवं सत्पात्रता भी आवश्यक है | शिष्य वही सफल होता है जो गुरु के बताये हुए उपदेश को ग्रहण करके उसका अनुपालन करने में सदैव तत्पर रहता है | उसकी सत्पात्रता ही उसे दिन - प्रतिदिन निखारती रहती है | मनुष्य को सर्वप्रथम सत्पात्र बनने का प्रयास करना चाहिए , यदि मनुष्य सत्पात्र बन जाता है तो सबकुछ स्वयं उसमें समाहित होने लगता है |*
*आज मनुष्य का सबसे बड़ा दोष यह उजागर हो रहा है कि वह दोषारोपण करने में पीछे नहीं रहता | किसी लक्ष्य को न प्राप्त कर पाने पर ईश्वर को या अपने गुरु / अभिभावक को दोषी मानने वालों को विचार करना चाहिए कि क्या वे इस लक्ष्य को प्राप्त करने की पात्रता रखते हैं ?? आज मनुष्य स्वार्थ एवं लोभ में सब कुछ शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त तो कर लेना चाहता है परन्तु स्वयं को उस योग्य नहीं बना पाता है | प्राय: देखा जाता है कि एक पिता की चार सन्तानों में एक ऐसी होती है जो माता - पिता को अधिक प्यारी होती है , वह प्यारी इसलिए होती है क्योंकि उसमें सत्पात्रता होती है शेष तीनों भाईयों में शायद यह नहीं देखने को मिलती | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह मानता हूँ कि मनुष्य ईश्वर , माता - पिता या सद्गुरु की कृपा पाने का अधिकारी तभी बन पाता है जब वह सत्पात्र हो | सत्पात्र बनने के लिए सर्वप्रथम धीर - गम्भीर बनना पड़ता है जो कि आज के युग में नहीं हो पा रहा है | आज अनेक प्रकार के सतसंग होते हैं लोग अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करके तुरन्त उसका समाधान चाहते हैं परन्तु समाधान को ग्रहण नहीं कर पाते हैं | जिस प्रकार ऊँची चट्टान तभी तक भीगी रहती है जब तक बरसात होती रहती है बरसात बन्द हो जाने के बाद एक बूंद जल भी चट्टानों पर नहीं टिकता उसी प्रकार ऐसे लोग तभी तक उस सतसंग में कही बातों का ध्यान रख पाते हैं जब तक सतसंग चलता रहता है | सतसंग के समापन के बाद ऊँची चट्टानों की ही भाँति उनके पास भी सतसंग की ज्ञानवर्षा की एक भी बूँद नहीं रह जाती | ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनके पास पात्रता नहीं होती है | अपने ज्ञान को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए इस संसार में कुछ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को पात्रता का विकास करना चाहिए |*
*किसी भी साधना की सफलता तभी मानी जा सकती है जब मनुष्य स्वयं को सत्पात्र बना सके अन्यथा सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं प्राप्त हो सकता |*