आत्मबोध
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कुछ झिलमिल कुछ -कुछ कुहासे सी,
सुरमयी छवि-छाया स्वयं मुग्धा सी।
स्वप्नावस्था में भी कुछ जगी-जगी,
कौन हो तुम जानी-पहचानी अपरिचिता सी।
किसी तपस्वी के तप की पुण्यफल स्वरूपा,
या किसी असुर की रहस्यमयी माया रूपा ।
मेरे पूर्व जन्मों की स्मृतियों के प्रतिबिंब सी.
कौन हो तुम,कौन हो तुम,कौन हो तुम कौन?
जीवन की आपाधापी में जिसे तुम बिसार दिये..
मैं वही प्रतीक्षारत दुष्यंतप्रिया हूँ ,
मैं वही अपहरण हुई सिया हूँ ,
मैं वही तमहारिणी उज्ज्वलमयी,
तुझ में छुपी अन्तर्आत्मा हूँ ।
अब यवनिका उठ चुकी ये जान ले,
कर वरण मेरा भूल सुधार ले।