चिर-परिचित सी कोई धुन, जब पड़ती इन कानों में।
तेरी यादों के जुगनू , चमके इन वीरानों में।
वो खुले-खुले से गेसू ,आंखें भी हिरनी जैसी।
भौंहें कुछ तनी हुई यूं, झट तीर चलाने जैसी।।
वह चतुर शिकारी ही थी ,जो घायल कर गई मन को।
जिसकी सांसों की खुशबू, मदहोश किए थी तन को।।
जब-जब छुप कर मैं रोया, शामिल था दीवानों में।
तेरी यादों के जुगनू , चमके इन वीरानों में।।
लिख-लिख भेजे खत जिनको,निकले पत्थर दिल वाले ।
मजबूत जिगर था उनका,रखे अरमान संभाले।।
भड़की थी आग बराबर, फिर भी कुछ थी मजबूरी।
लड्डू फूटे थे मन में, पर दिखा रहे थे दूरी।।
जब-जब था ऐसा होता , गुम जाते सामानों में।
तेरी यादों के जुगनू , चमके इन वीरानों में।।
चिर-परिचित सी कोई धुन, जब पड़ती इन कानों में।
तेरी यादों के जुगनू , चमके इन वीरानों में ंं।।