नास्तिक कौन है?
नास्तिक शब्द से हमें ऐसे व्यक्ति का बोध होता है जिसकी प्रचलित धर्मों में कोई भी आस्था ना हो। कभी-कभी पूजा पद्धति में अविश्वास रखने वालों या इसके प्रति तिरस्कार का भाव रखने वाले व्यक्तियों को भी नास्तिक कह दिया जाता है, किंतु यह नास्तिकता की संकीर्ण व्याख्या है। अनीश्वरवादी और नास्तिक होने में अन्तर है। अनीश्वरवादी का अर्थ है ईश्वर को न मानने वाला और नास्तिक होने का अर्थ है-ईश्वर है या नहीं इसका ज्ञान नहीं रखने वाला। यह भी सत्य है कि आस्था की मंजिल पर पहुंचने के पहले नास्तिकता का रास्ता पार करना होता है। किसी ने क्या खूब कहा है-ईश्वर को धन्यवाद कि मैं नास्तिक हूँ।
भारत में नास्तिकता
यद्यपि महान् वैयाकरण पाणिनि ने नास्तिक शब्द का अर्थ किया है'परलोक में विश्वास न रखने वाला' और इसलिए पाणिनि के मतानुसार आस्तिक शब्द का अर्थ हुआ 'परलोक में विश्वास रखने वाला'। बुद्ध-उत्तर लेकिन ईसा पूर्व काल की एक परंपरा ने आस्तिक शब्द का अर्थ निर्धारित किया है 'वेदों की सर्वथा निर्दोषता और उनकी चरम प्रामाणिकता में विश्वास रखने वाला'। कदाचित् इस परंपरा को सबसे अधिक सहारा मिला स्मृतिकार मनु से, जिनकी घोषणा थी कि'वेद निंदक ही नास्तिक है' नास्तिको वेदनिन्दक: '। जो भी हो, इस परंपरा ने गहरी जड़ पकड़ी और भारतीय दर्शन के क्षेत्र में आस्तिकता की कसौटी' वेदों की चरम प्रामाणिकता की स्वीकृति' ही बन गई।
वेदभक्त दृष्टिकोण से तीन संप्रदायों को नास्तिक घोषित किया गया है और इसमें संदेह नहीं कि यह तीनों ही वेद विरोधी हैं; यह हैं:-
1 भौतिकवादी दर्शन, जिसे लोकायत, चार्वाक अथवा बार्हस्पत्य नाम दिया गया,
2 कई ऐसे दार्शनिक संप्रदाय जो कम-से-कम औपचारिक रूप से बुद्ध के अनुयायी होने का दावा करते थे और इसलिए बौद्ध कहलाए,
3 एक दूसरा धार्मिक-दार्शनिक संप्रदाय जो कदाचित बौद्ध संप्रदाय से भी पुराना है और जिसका नाम जैन है। जैन शब्द जिन शब्द से बना है, जिसका अर्थ है विजेता अर्थात् वह जिसने अपनी वासनाओं का दमन करके अपने पर विजय पा ली है।
जिन छ: संप्रदायों को आस्तिक अर्थात् वेदभक्त घोषित किया गया है; वे हैं:-
1 पूर्व मीमांसा अथवा मीमांसा,
2 वेदांत जिसका शब्दार्थ है वेद का अंतिम भाग और जिसे उत्तर मीमांसा भी कहा गया है,
3 सांख्य जिसका शब्दार्थ भी अनिश्चित है और इसकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई यह बात भी,
4 योग—यद्यपि यह एक शारीरिक व्यायाम-शास्त्र है, न कि कोई दार्शनिक संप्रदाय,
5 न्याय—एक संप्रदाय जो प्रारंभ में वाद-विवाद की प्रणालियों के स्वरूप निरूपण तथा तर्क शास्त्र के प्रश्नों में ही विशेष दिलचस्पी रखता था,
6 वैशेषिक एक संप्रदाय जो द्रव्य, गुण, कर्म आदि मूल-पदार्थों के स्वरूप विवेचन में विशेष रुचि रखता था।
मेरी अपनी राय में सबसे समीचीन परिभाषा स्वामी विवेकानंद जी ने दी है। वह कहते हैं कि पुराने धर्म में नास्तिक उसे कहते थे जो ईश्वर में विश्वास नहीं रखता था, किन्तु नया धर्म उसे नास्तिक कहता है जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं।