वह द्विविधा में थी कि सतीश के प्रस्ताव को किस तरह स्वीकार करे . उसके सुदर्शन व्यक्तित्व से वह प्रभावित तो अवश्य थी किन्तु उसके बारे जानती ही कितना थी कि अपनी जिन्दगी का इतना बड़ा फैसला यूं ही आनन -फानन में ले सके. किससे विचार -विमर्श करूंं ? उसने अपनी बचपन की सहेली प्रतिमा को फोन लगाने का निश्चय किया . अभी पिछले वर्ष ही उसने एक साधारण से युवक से प्रेम विवाह किया था . उनकी जोड़ी को देख कर इस कथन की पुष्टि हो जाती थी कि प्रेम अंधा हुआ करता है . किन्तु बेमेल जोड़ी के बावजूद वह जानती थी कि उनका वैवाहिक जीवन अत्यन्त सफल है.
सत्यबाला ने जब प्रतिमा से इस संबंध में बातचीत की तो उसे एकाएक अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ . प्रतिमा ने उसे नाक कटा लेने पर स्वर्ग दिखने वाली कहानी सुना डाली . वह हंसती हुई बोली कि यदि तू नाक कटा लेने पर उतारू है तो मैं रोकूंगी नहीं . परन्तु हां याद रखना, तुझे स्वर्ग नहीं दिखने वाला है . वैवाहिक संबंध बाहर से कितने ही सफल दिखें लेकिन हैं सब समझौते ही और इन समझौतों को कायम रखने के लिए किसी एक को बलिदान देना ही होता है . सत्यबाला ने अपने मन को समझाया कि प्रतिमा तो बचपन से ही ऐसी रही है . इतनी ही समझदार होती तो क्लास में ' बैक बेंचर्स की रानी' का टाइटल क्यों पाती ? स्वयं के विवाह में उसने किसकी सुनी ,अब भुगते !
यह सब तो ठीक था और सत्यबाला ने अपने मन को समझा भी लिया . लेकिन इससे मूल प्रश्न तो अनुत्तरित ही रह गया . सत्यबाला किससे विचार - विमर्श करे ? इस बार उसने सीधे सतीश को ही फोन लगाया . कॉल लगते ही , इससे पहले कि सत्यबाला कुछ बोल पाती ,सतीश बोल पड़ा :-
---"..तो तुम्हारी तरफ से भी हां ही है ना ?"
---" नहीं,नहीं ..मेरा मतलब है कि मैं अभी निर्णय नहीं ले सकी हूं . तुमने मुझे कल तक का वक्त दिया है , "सत्यबाला ने घबरा कर जल्दी-जल्दी अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी .
---"जरूर , जरूर . और इस वक्त को बढ़ाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है . मैं ताउम्र तुम्हारा इन्तजार कर सकता हूं", रोमांटिक अंदाज में बोला गया फिल्मी सा यह डायलाग सुन सत्यबाला सोच में पड़ गयी . वह कोई टीनेज़र नहीं थी कि इन लटकों-झटकों से प्रभावित हो जाती . वह पूरे पैंतीस वर्ष की युवती थी जिसने अब तक पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वाह में विवाह - बंधन से स्वेच्छापूर्वक मुंह मोड़ रखा था .धीरे - धीरे जब उसके परिवार ने उसकी सुध लेना और उसके भविष्य की चिंता करना छोड़ दिया तो उसको झटका सा लगा . उसको लगा कि अब वक्त आ गया है कि उसे अपने बारे में सोचना चाहिए . सतीश उसी के कॉलेज में लेक्चरार है जहां वह हेड ऑफ द डिपार्टमेंट है . सुदर्शन व्यक्तित्व का मालिक सतीश पिछले वर्ष ही इस कॉलेज में आया है और पहले दिन से ही सत्यबाला का दिल उस पर आ गया था . लेकिन यह वह राहें थीं जिन पर वह अब तक नहीं चली थी . इन राहों पर चलने के रिवाजों से तो वह वाकिफ थी लेकिन उनके कायदे -कानूनों से उसका वास्ता कभी नहीं पड़ा था .
---" तुम्हें उम्र भर इन्तजार करा कर मुझे बूढ़ी होने का कोई शौक नहीं है . कल तक निर्णय ले लूंगी. इससे पहले क्यों न आज शाम हम डिनर साथ - साथ लें ? "
---".....ठीक है , कहां ? "
---" कहीं ठीक -ठाक सी जगह ...".
---"..जहां कोई आता - जाता न हो ? "
---" ज्यादा रोमांटिक होने की जरूरत नहीं है बच्चे . आठ बजे पैराडाइज पहुंचो ," कह कर सत्यबाला ने हुकुम सा सुना कर फोन काट दिया . उसे पता था कि इस वक्त सतीश का मुंह लाल हो रहा होगा . वह उससे सात वर्ष बड़ी थी और जब-तब उसे बच्चा कह बैठती थी. उसे मालूम था कि यह सतीश को कतई पसंद नहीं है फिर भी वह उसे बच्चा कहने से स्वयं को रोक नहीं पाती थी .
आज छुट्टी का दिन था . सत्यबाला अब तक बिस्तर पर पड़े - पड़े बोर होती रही थी . फिर सोचा ,चलो आज ही निर्णय ले लेती हूं और डिनर पर उसे बता कर खुश करती हूं . कब तक टालती रहूंगी ? रिस्क तो है , लेकिन रिस्क ले लेने में हर्ज ही क्या है ? वह कोई अबला नारी तो है नही , स्वयं अपने पैरों पर खड़ी आर्थिक और सामाजिक रूप से संपन्न आज की आधुनिक नारी है . अब उसका जी हलका हो गया और उसने तय किया कि डिनर पर जाने से पहले वह ब्यूटी पार्लर होते हुए वहां पहुंचेगी .
डिनर पर जाने के लिए उसने वह पोशाक चुनी, जो उसके मिजाज के विपरीत थी . कुछ शोख सा फिर भी शालीन चूड़ीदार सूट , जो उसकी उम्र को कुछ वर्ष अवश्य कम दिखायेगा . अन्यथा, वह कॉलेज और उसके बाहर भी सिर्फ सिल्क साड़ियां ही पहना करती है . सूट उसने इसी अवसर के लिए कल ही खरीदा था . पार्लर पहुंच कर उसने अपने आप को नीरजा के हवाले कर दिया जो वहां की मालकिन - मुख्य ब्यीटीशियन थी और कभी उसकी स्टूडेंट भी रही थी . सत्यबाला ने वहां अपने वस्त्र बदल कर पार्लर का गाउन पहन लिया . उसके चेहरे पर फेस पैक , आंखों पर खीरे की स्लाइसें लग गईं और एक परिचारिका उसके हाथों, पांवों को सजाने -संवारने में व्यस्त हो गई . कुछ पल ही बीते होंगे कि उसी के कॉलेज की दो स्टूडेंट लड़कियां उसी पार्लर में पहुंच गईं . एक तो उसके बाजू में खाली पड़ी कुर्सी पर बैठ कर अपना काम करवाने लगी और दूसरी प्रतीक्षा में वहीं पीछे बैठ अपनी सहेली से बातचीत जारी रखे थी . दोनों उसे इस गेटअप में पहचान नहीं पायीं और उनकी बातचीत का केंद्र बिंदु सत्यबाला और सतीश थे .
---" ..आजकल बासी कढ़ी में उबाल जोरों पर है,सतीश की खैर नहीं ."
---" ...तू गौर से देखना कैसे नजरों - नजरों में सतीश को साबुत निगल जाने को बेताब हैं मैडम ."
सत्यबाला के बारे में उनकी टिप्पणियां बेबाक जारी रहीं . वह सन्न रह गई .उसे इसका कतई भान न था कि यह संबंध सार्वजनिक हो चुका है . वह तो सदैव गंभीर , संयत और शालीन व्यवहार ही करती आई है , फिर कैसे? सही कहा गया है कि इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छुपता .
---"सतीश भी कम नहीं है , उसने मोटी मुर्गी फांसी है . अपनी सारी दौलत उस पर लुटा देगी ."
---" फिर उस छिपकली का क्या होगा जिसके पल्लू से बंधा हुआ है ?"
---" कौन ? आराधना शर्मा ? "
---" हां, हां वही ."
--- " वह चैप्टर तो कब का खतम हो चुका है . आजकल साथ -साथ कहां कॉलेज आते हैं ? आराधना ने भी एक और लड़का फंसा लिया है. नरेश को ट्यूशन दे रही है . नोट्स और लेक्चर उसी को दिए जा रहे हैं . कल मॉल में भी साथ-साथ दिख रहे थे ,मुझे देख कर कट लिए ".
----" खैर छोड़ो भी उनके किस्से ,अपनी बता ? किसे दाना डाल रही है ...??"
उन लड़कियों की बातचीत कहीं और मुड़ गई और सत्यबाला इसी सोच में डूबी रही कि कॉलेज में अपने छात्रों से अब वह किस तरह मुखातिब हो पायेगी .वह आराधना शर्मा वाले प्रसंग से भी परिचित न थी .अब उसके मन में शंका का बीज अंकुरित होने लगा.
उधर सतीश भी रात के डिनर की बात सुन खुशी से झूम उठा और नियत समय से कुछ पहले ही पैराडाइज के लिए निकलने लगा . फिर उसने सोचा चलो पहले एक -आध पैग मार लेते हैं ,वरना मैडम तो इस गुस्ताखी की इजाजत देने से रहीं. उसके कदम बेसाख्ता पब की ओर बढ़ गए . उसे क्या पता था कि वहां आराधना शर्मा टकरा जाएगी. वह एक कोने की कुर्सी पकड़े अकेले अपनी मनपसंद ब्रांड की बियर सुड़क रही थी .क्षण भर ठिठक कर वह उसी के सम्मुख जा बैठा. हल्के -हल्के सुरूर में दहकते रुखसार आराधना को अत्यन्त आकर्षक बना रहे थे . सतीश सब कुछ भूल वहीं उससे बातचीत में मशगूल हो गया. एक बार जब गिले-शिकवे सुनने - सुनाने का सिलसिला शुरू हुआ तो समय कैसे बीतने लगा पता ही नहीं चला. फिर अचानक किसी बात पर तैश में आ कर आराधना सतीश को चांटा मार कर पब से निकल गई.
पार्लर से निकलते - निकलते तीन घंटे लग गए और ठीक आठ बजे पोशाक बदल सत्यबाला डिनर के लिए होटल पैराडाइज रवाना हो गई .अब तक वह अपने मन को समझा चुकी थी कि --कुछ तो लोग कहेंगे , लोगों का काम है कहना . पंद्रह मिनट बाद वह होटल की टेबल पर पहुंच गई . सतीश अभी तक नहीं आया था . पल भर की प्रतीक्षा भी आज भारी पड़ रही थी . फिर भी सतीश नहीं आया , हां उसका एक संक्षिप्त पत्र देर तक प्रतीक्षा के बाद उस तक पहुंच गया . लिखा था :-
"प्रिय सत्या,
अब जब तुम डिनर टेबल तक पहुंच गई हो तो मुझे तुम्हारे निर्णय का अनुमान हो रहा है . जब हमने मिल कर मेरे स्वयं के प्रस्ताव पर कल तक की समय सीमा तय की थी तो मुझे पता नहीं था कि मैं स्वयं भी अनिर्णय की स्थिति में हूं . काफी सोच -विचार के पश्चात मैंने स्वयं के लिए भी इस प्रस्ताव पर कल तक की समय सीमा तय कर ली है . अब हम दोनों कल मिलेंगे और बेबाकी से एक दूसरे को अपने निर्णय बतायेंगे .
तुम्हारा बच्चा ,
सतीश "
सत्यबाला को पत्र पढ़ने में क्षण भर भी नहीं लगा . वह सोच में पड़ गई कि सत्यबाला अब क्या करे ? कैसे उस पर भरोसा करे जो स्वयं अनिर्णय की स्थिति में है ? इस पल उसे प्रतिमा के बोल बार-बार याद आ रहे थे --"याद रखना , तुझे स्वर्ग नहीं दिखने वाला है . वैवाहिक संबंध बाहर से कितने ही सफल दिखें लेकिन हैं सब समझौते ही और इन समझौतों को कायम रखने के लिए किसी एक को बलिदान देना ही होता है ." सत्याबाला क्या इन समझौतों के लिए तैयार है? वह अपनी स्वतंत्रता क्यों खो दे? ऐसे रिश्ते को वह कैसे कुबूल कर लें जिसमें पहले कदम पर ही उसे अपने पति की पूर्व प्रेमिका की उपस्थिति से समझौता करना हो? जब उसका भूत बिल्कुल पाक -साफ़ है तो वह सतीश के भूत से क्यों समझौता करें और क्या पता यह सिलसिला आगे भी जारी रहने वाला हो? सत्यबाला उलझन में थी।वह सोच में पड़ गई किअब क्या करे ?
*इति