जब कभी हम बीच में रह कर निकल जाने की कोशिश में रहते हैं तो अक्सर भूल जाते हैं कि युधिष्ठिर को भी अंत में इस दुस्साहस की क़ीमत चुकानी पड़ी थी। सिर्फ़ एक बार जब उन्हें सत्य और असत्य के बीच चुनाव करना था, उन्होंने बीच का मार्ग अपनाया और परिणामस्वरूप धर्मराज होते हुए भी अंत में उन्हें नर्क के दर्शन करने पड़े। यह सूचना ऐसे होशियार बंदों के लिए है जो सोचते हैं कि कौन टंटे में पड़े ,बीच से सुरक्षित निकल लेते हैं। बीच का रास्ता, बीच का स्थान, किसी झगड़े में बीच-बचाव करना या फिर बीच में ही किसी उद्यम को त्याग देना, यह ऐसी बातें हैं जिनके दुष्परिणाम सभी को भुगतने पड़ते हैं।
जीवन के हर पहलू में यह बीच का मामला सदैव बड़ा कष्टदायी होता है। जिन लोगों ने स्लीपर क्लास में बीच की बर्थ का चुनाव कभी किया है, वह इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं। कभी याचक की तरह नीचे की बर्थ पर बैठे यात्रियों को ताकना कि वह उठें तो बीच की बर्थ खोली जाये और जिससे पीठ को सीधा किया जा सके। कभी नीचे सो रहे यात्रियों की कुंभकर्णी नींद को कोसते हुए उनके उठने की प्रतीक्षा करना कि जिससे बीच की बर्थ खड़ी की जा सके और पैर फैला कर बैठना नसीब हो। ऐसे अवसरों पर बीच वालों को ऊपर की बर्थ स्वर्ग और उस पर विराजे यात्री स्वर्ग को अपने आधीन किए हुए देव गण प्रतीत होते हैं। अगर आपने कभी ग़ौर न किया हो तो अगले मौके पर ध्यान दीजिएगा यह देव गण नीचे की बर्थ पर बैठे यात्रियों की ओर कैसी हिकारत की नज़र डाल रहे होते हैं। नीचे बैठे यात्रियों को जब-तब हव्य स्वरूप मिनरल वाटर, चाय आदि ऊपर की बर्थ के देवों तक पहुँचाने का पुनीत कार्य करते रहना होता है। बीच वाले इस पुण्यकर्म से भी वंचित रह जाते हैं। त्रिशंकु अवस्था का साक्षात्कार करना हो तो उसके लिए बीच की बर्थ सबसे मुफीद जगह है। जब कभी टी.टी.मुझे यह कह कर बीच की बर्थ ऑफर करता है कि आगे चल कर खाली होते ही मुझे ऊपर की बर्थ दे देगा, मैं हाथ जोड़ देता हूँ। ऋषि विश्वामित्र का सशरीर स्वर्ग भेजने का प्रस्ताव जिसकी परिणति त्रिशंकु होने में हो, ठुकरा देना ही श्रेयस्कर है।
बीच में होने का दुःख उनसे ज़्यादा किसने जाना होगा, जो ना स्त्री हैं ना पुरुष। उन्हें कैसी पीड़ा होती होगी जब किसी दस्तावेज में सिर्फ़ दो ही विकल्प दिए होते हैं स्त्री या पुरुष और उनसे उनमें से एक को चुनने को कहा जाता है। बीच में होने की मजबूरी ईश्वर का उनके साथ किया हुआ भद्दा मजाक है। उसकी त्रासदी ताजिंदगी भोगने के लिए वह मजबूर हैं। अपनी पीड़ा को तालियाँ बजा-बजा कर दूर करने की उनकी कोशिश भी कितनी अर्थहीन है, यह हम और आप सभी अच्छी तरह से जानते हैं।
बीच के अभिशाप से खेल भी अछूते नहीं हैं। क्रिकेट में मध्यक्रम के बल्लेबाजों के साथ हमेशा अन्याय होता रहा है। उनसे अच्छे तो पुछल्ले बल्लेबाज हैं जिनसे किसी को कोई अपेक्षा नहीं होती। अक्सर टीम का स्कोर दहाई तक पहुँचने से पहले ही प्रारंभिक सूरमा बल्लेबाज सिर झुकाए पवेलियन में आराम फर्माने लगते हैं और टीम की बल्लेबाजी को संभालने का दायित्व बीच वालों के मत्थे मढ़ दिया जाता है। भाई लोगों, वह इतने ही जांबाज और हुनरमंद होते तो शुरू में ही बल्लेबाजी ना कर रहे होते। इन परिस्थितियों में चाहते तो सब पुछल्ले बल्लेबाज बनना ही हैं, लेकिन बलि का बकरा बनना बीच वालों की ही क़िस्मत में है। यह बात और है कि बैंक डोर इंट्री वाले खिलाड़ी भी इधर ही एडजस्ट किए जाते हैं।फेल होने पर टीम से बाहर सबसे पहले इन्हीं को किया जाना तय है। इसीलिए हमने तेंदुलकर, सहवाग, गांगुली जैसे मध्यम क्रम के बल्लेबाजों को मौका मिलते ही शुरुआती बल्लेबाज बनते देखा है।
जब दुनिया दो खेमों में बंटी और शीत युद्ध चरम पर था, हमारी मति मारी गई और हम बीच में चले गए। ना इधर के रहे और ना उधर के। उस पर तुर्रा यह कि हमारी अर्थव्यवस्था भी बीच मंझधार में गोते खाती रही। हमारा पूंजीवादी मनोवृत्ति से समाजवादी संकल्प लेना कुछ-कुछ उसी तरह रहा जैसे पूजाविधि से अनजान जजमान पुरोहित के इशारों पर यंत्रवत कभी आचमन करता है, कभी इधर-उधर पुष्प चढ़ाता है, कभी दंडवत होता है तो कभी प्रदक्षिणा करने लगता है। यह सारी उठापटक व्यर्थ गई क्योंकि हमारी ऐसे किसी प्रयोजन और विधि में आस्था ही नहीं थी। दोनों खेमें हमें शक की निगाह से देखते रहे और हम बीच में खड़े ज़रूरत पड़ने पर जब-तब उनका मुँह ताकते रहे।
अब बात करते हैं अपने बीच वाले यानी कि मध्यमवर्गीय समाज की। यह अपने-आप को जाने क्या समझे बैठा है? औकात टके की नहीं और दावा है कि सारे जहाँ का दर्द वह बांट लेगा। कोई सरकार आये, कोई बजट बनाये सबसे ज़्यादा नुक्सान इन्हीं बीच वालों का होना तय है। हमेशा ही अभूतपूर्व परिस्थितियाँ रहा करती हैं। कभी प्राकृतिक आपदा, कभी सीमा पर तनाव, कभी शक्तिशाली देशों के लगाये प्रतिबंध और इन सब के बावजूद गरीबों के लिए सभी के दिलों में हमदर्दी रहती है और फिर एक और वर्ग है जिसके लिए तो हमेशा कुछ ना कुछ करना इस प्रजातांत्रिक देश में बेहद ज़रूरी है-" यू-नो-हू';' दैट सेक्शन-हू-मस्ट-नाट-बि-नेम्ड' ! इन सभी परिस्थितियों में बलिदान और जेब कटाने की जिम्मेदारी बीच वाले मध्यम वर्ग की ही बनती है।
मेरे मार्क्सवादी मित्र मुझसे बहुत नाराज़ हैं। उनकी बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग के बीच मेरे ये बीच वाले बहुत गड़बड़ कर देते हैं। इस बीच के वर्ग की खासियत है कि उनके लक्षण तो सर्वहारा वर्ग के हुआ करते हैं लेकिन मौका मिलते ही वह बुर्जुआ वर्ग में शामिल हो जाने पर फक्र महसूस किया करते हैं। यही एक वज़ह है कि इतनी अशांति, आपाधापी,असमानता और शोषण के बावजूद हमारे मार्क्सवादी मित्रों की बहुप्रतीक्षित सर्वहारा क्रांति बस दिवास्वप्न बन कर रह गई है।
ऐसा भी सुनने में आया है कि बीच वालों को कभी बोरियत न होने का वरदान मिला होता है। जिंदगी भर कुछ ना कुछ आफत लगी रहती है। वह ऐसी पंगत के बीच में हमेशा मिलेंगे जिसमें पूड़ी-सब्जी किसी भी छोर से बंटे उन तक आते-आते खतम हो ही जाती है। तो भाई-बहनों अपना तो यही मत है कि बीच में रहने,बीच में चलने और बीच वाला होने में कष्ट ही कष्ट है । इसीलिए कहता हूं-"जिधर हो हवाओं का रुख उधर ही हो जा तू!"
इति*