*इस संसार में ईश्वर तो स्वतंत्र है परन्तु जीव परबस है | जीव अपने कर्मों के बस में हैं | जो जैसा कर्म करता है उसे उसका फल भोगना ही पड़ता है | कभी कभी तो ऐसा लगता है कि किसी दूसरे के कर्म का फल कोई दूसरा भोग रहा है परंतु ऐसा नहीं होता क्योंकि जीव इन वाह्यचक्षुओं से कर्मों की सूक्ष्मता को नहीं देख पाता | ईश्वर की बनाई इस महान श्रृष्टि में सबसे प्रमुखता कर्मों को दी गई है | चराचर जगत में जड़ , चेतन , जलचर , थलचर , नभचर या चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने वाला कोई भी जीवमात्र हो | सबको अपने कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है | ईश्वर समदर्शी है , ईश्वर की न्यायशीलता प्रसिद्ध है | ईश्वर का न्याय सिद्धांत ऐसा है कि इसको कोई काट नहीं सकता है | अगर मनुष्य को सुख और दुख प्राप्त हो रहा है तो यह समझ लेना चाहिए कि यह उसके कर्मों का फल है , इसमें अन्य किसी का कोई दोष नहीं है | प्रत्येक मनुष्य अपना कर्म करने के लिए स्वतंत्र होता है | यदि वह सत्कर्म करता है तो उसका अच्छा फल मिलता है , वहीं दुष्कर्म करने वाले मनुष्य को दुख भोगने के साथ ही अपने कर्म फल का भी भोग करना पड़ता है | मानव शरीर में आकर के जीव जब कुछ विशेषाधिकार प्राप्त कर लेता है तो कभी - कभी वह विशेषाधिकार का हनन करने का भी प्रयास करता है , जिसके परिणामस्वरूप उसको उसका विपरीत परिणाम उसको भोगने पड़ते हैं | चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मानव शरीर को पाकर कि यदि मनुष्य सत्कर्म नहीं कर पाता है तो यह उसके दुर्भाग्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता है | लोग अपने कर्मों के अनुसार फल भोगते हैं और उसका दोष ईश्वर को लगाते हैं , जबकि जो भी जैसा कर्म करेगा उसको उसका फल अवश्य भोगना ही पड़ता है |*
*आज भी कर्मफल का सिद्धांत अचल एवं अडिग है , इस सिद्धांत को न तो कोई काट पाया है और न ही काट पायेगा | आज कुछ लोग मानस में लिखे गये एक दोहे को पढ़कर कर्मफल के सिद्धांत के प्रति भ्रमित हो जाते हैं , जहाँ दशरथ जी कह रहे हैं :- "और करै अपराध कोउ और पाव फल भोग ! अति विचित्र भगवंत गति को जग जानइ जोग !! अर्थात:- दशरथ जी कह रहे हैं कि :- अपराध कोई कर रहा है और उसके कर्म का फल कोई और भोग रहा है | कर्म का फल देने की विधि अतिविचित्र है , संसार के नियमों को कौन जान सकता है ?अर्थात कोई नहीं जान सकता है | कैकेयी के कर्म (लोभ) का फल मेरे पुत्र राम को भोगना पड़ रहा है | दूसरी बात तो दशरथ जी के हृदय में है कि " श्रवण कुमार का अपराधी मैं हूं ,फल तो मुझे मिलना चाहिए लेकिन मेरे कर्म का फल भी राम को भोगना पड़ रहा है । इसलिए दशरथ जी ऐसा कह रहे हैं | इन सभी अर्थों /भावों को पढ़कर भ्रमित होने वाले सभी महानुभावों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूँगा कि ऐसा हमें भले ही लगता हो कि मेरे कर्म का फल किसी और को भोगना पड़ रहा है परंतु ऐसा बिल्कुल भी नहीं होता है | ध्यान देने योग्य बात यह है कि दुख में कही गई बात , क्रोध में कही गई बात ,मोह और लोभ में कही गई बात , सत्य नहीं मानी जाती है ,और न ही उसे विवेक कहते हैं | न ही संसार के बुद्धिमान सामाजिक व्यक्ति उन बातों को उचित मानते हैं | दशरथ जी घोर से घोर मानसिक व्यथा से पीड़ित हैं ,इसलिए वेदों की बात और नीति की बात, तथा श्रेष्ठ पुरुषों की बात निरर्थक होते दिख रही है | लेकिन ऐसा नहीं है | अब कर्मफल की सूक्ष्मता पर ध्यान दिया जाय तो यह बात सामने आती है कि :- राम जी को नारद जी ने शाप दिया था कि स्त्री के वियोग में आप भी दुखी होकर घूमेंगे | ये बात दशरथ जी को पता नहीं है | दशरथ जी को पुत्र के वियोग में प्राण छूटने का शाप श्रवण कुमार के माता पिता ने दिया है | ये दोनों शाप आज एक साथ फल दे रहे हैं | दशरथ अपने कर्म का फल भोगने जा रहे हैं और श्री राम अपने कर्म का फल भोगने जा रहे हैं , तो ये बात दशरथ जी की कैसे सही हो सकती है कि "अपराध कोई और करता है और फल कोई और भोगता है | ये बात पुत्र मोह में कही गई है इसलिए सत्य नहीं है | सत्य यही है कि जो कर्म करता है ,उसी को फल भी भोगना पड़ता है |*
*कर्मफल की सूक्ष्मता को हम इन वाह्यचक्षुओं से नहीं देख सकते हैं मेरे किये गये कर्म का फल यदि मेरे किसी प्रिय को भोगना पड़े तो यह समझ लेना चाहिए कि इसमें हमारे प्रियजन का भी कोई कर्म फल प्रदान कर रहा है ! इसलिए भ्रमित नहीं होना चाहिए |*