*इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य भगवान को प्राप्त करने का अनेकों साधन साधता है | भगवान को प्राप्त करने के अनेक मार्ग हमारे सनातन धर्म में बताये गये है परंतु इन सभी साधनों में प्रधान साधन है "सर्वभूत हित "अर्थात जीव मात्र में परमात्मा का दर्शन करते हुए उनका हित करना | भगवान जीव मात्र में स्थित है अतः जीव मात्र का हित करना और उन्हें सुख पहुंचाना भगवान की सबसे बड़ी सेवा है | प्राणी जगत में जहां जिस वस्तु का अभाव है वहाँ भगवान उसी वस्तु के द्वारा अपनी पूजा चाहते हैं और उस पूजा में केवल भगवत्प्रीति के अतिरिक्त अन्य कोई कामना नहीं रहती है तो उसी निस्वार्थ सेवा से आत्मा का उद्धार या भगवत्प्राप्ति अनायास ही हो जाती है | मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं " परहित बस जिन्ह के मन माहीं ! तिन्ह कहूं जग दुर्लभ कछु नाही !!" अर्थात :- जिसके हृदय में दूसरे का हित बसता है उसको जगत में कुछ भी दुर्लभ नहीं है | भगवत्प्राप्ति या फिर परमात्मा की प्राप्ति करने के लिए कोई साधन करें या न करें यदि मनुष्य निष्काम भाव से परोपकार करता रहता है तो उसे इतना करने मात्र से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है क्योंकि अर्जुन को अपने स्वरूप का उपदेश देते हुए गीता में स्वयं भगवान ने इस बात की घोषणा की है कि "लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मष: !छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रत: !!" अर्थात :- जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं , जिनके संशय से ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गये हैं , जो संपूर्ण प्राणियों के हित में सदैव तत्पर हैं और जिनका बस में किया हुआ मन निश्चल भाव से परमात्मा में स्थित है वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं | इससे यह सिद्ध हो जाता है कि उपर्युक्त लक्षणों से युक्त पापरहित ऋषिजन सारे भूतों के हित में रत रहने के प्रभाव से ही निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त हुए हैं | इसलिए मनुष्य को यह चाहिए कि वह अपने स्वार्थ का सर्वथा परित्याग करके अपने तन मन धन से दुखी , अनाथ एवं आतुर प्राणियों की सेवा करे ! क्योंकि ईश्वर समान रूप से सबमें ही स्थित है |*
*आज के युग को दिखावे का युग कहा जा सकता है , लोग भगवान को प्राप्त करने के लिए अनेकों साधन साधते हुए दिखाई तो पड़ते हैं परंतु उनके मन में "सर्व भूत हित" की भावना का दर्शन नहीं हो पा रहा है | मंदिरों में जाकर के ईश्वर को ढूंढने वाले यह भूल जाते हैं की मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे हुए कुछ लाचार एवं दुखी व्यक्ति भी ईश्वर के ही अंश हैं क्योंकि यह स्पष्ट है कि "ईश्वर अंश जीव अविनाशी" अर्थात प्रत्येक प्राणी मात्र में ईश्वर विद्यमान है | बाबा जी ने स्पष्ट कर दिया है कि "ईश्वर सर्व भूतमय अहई" तो जब सभी जीवो में , चराचर में ईश्वर समान रूप से स्थित है तो बिना जीव का हित किए ईश्वर को भला कैसे प्राप्त किया जा सकता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि वेदव्यास जी महाराज ने स्कंद पुराण के काशी खंड में लिख दिया है :- "परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम् ! नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पद: स्यु: पदे पदे !! तीर्थस्नानैर्न सा शुद्धिर्बहुदानैर्न तत्फलम् ! तपोभिरुग्रैस्तन्नाप्यमुपकृत्वा यदाप्यते !!" अर्थात :- जिन सज्जनों के हृदय में परोपकार की भावना जागृत रहती है उनकी समस्त आपदाएं नष्ट हो जाती हैं और उन्हें पद पद पर सम्पति प्राप्त होती रहती हैं ना तो अनेक तीर्थों में स्नान करने से वह सी पवित्रता होती है और ना प्रचुर मात्रा में दान देने से तथा उग्र तपस्या से भी वैसा फल प्राप्त नहीं होता है जैसा कि दूसरों का उपकार करने से होता है | अब विचार कीजिए कि सनातन के सभी ग्रंथ लगभग घोषणा करते हैं की जीव सेवा अर्थात परोपकार करना ही भगवान को प्राप्त करने का सबसे सरल साधन है फिर भी आज का मनुष्य इस विषय को अनदेखा करके अनेकों प्रकार की साधन अपनाता रहता है | जिस ईश्वर को ढूंढने के लिए लोग अपने घर , परिवार , समाज को छोड़कर निकल जाते हैं वह ईश्वर कहीं अन्यत्र ना होकर प्राणी मात्र के हृदय में स्थित है | जिस दिन मनुष्य प्राणी मात्र में ईश्वर का दर्शन करने लगता है उस दिन उसे किसी अन्य साधन को साधने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है परंतु आज मनुष्य सब कुछ तो कर लेता है परंतु "सर्वभूत हित" अर्थात सबका हित करने के विषय में विचार ही नहीं कर पाता | यही कारण है कि अनेकों प्रकार के पूजा-पाठ , अनुष्ठान एवं तपस्या करने के बाद भी मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो पा रही है |*
*यदि दुखी , अनाथ प्राणियों की सेवा करते - करते भगवान की प्राप्ति में विलंब हो तो मनुष्य को विचलित नहीं होना चाहिए | निष्काम भाव से परम श्रद्धा - विश्वास के साथ प्रेम पूर्वक सेवा करते रहना चाहिए | सेवा में श्रद्धा एवं प्रेम पूर्वक भगवत्प्रीति और निष्काम भाव होने से वह उच्च कोटि की साधना हो जाती है और इसी साधना से भगवान की प्राप्ति संभव है |*