*सनातन धर्म में भक्ति का बहुत बड़ा महत्व है | भक्ति क्या है ? इसका विश्लेषण हमारे शास्त्रों में बहुत ही विधिवत किया गया है | वैसे तो भक्ति नौ पिरकार की कही गयी है परंतु मुख्यत: भक्ति दो प्रकार की बताई गई हैं :- साध्य भक्ति एवं साधन भक्ति | साध्य भक्ति क्या है ? इसके विषय में कहा गया है कि तत्वत: साध्य भक्ति नित्य , विभु एवं आत्मशक्ति ही है | अंतः करण की वृत्ति प्रकाशक बल्ब की भांति है | प्रकाशक होने से उपचारत: उसे भक्ति कहा गया है , तत्वत: नहीं | वह साध्य भक्ति साधक के पौरुष से नहीं बल्कि श्रीराम की कृपा से मिलती है | साध्य भक्ति से भगवान का साक्षात्कार हो सकता है परंतु क्या वह साक्षात्कार अंतः करण की जड़ वृत्ति से संभव है ? क्या जड़ वृत्तिमयी भक्ति ही मानस के साक्ष्य पर यही स्वरूप दर्शाती है ? जी नहीं | साध्य भक्ति के अधीन ज्ञान अर्थात वाक्य ज्ञान , तर्कलब्ध ज्ञान और विज्ञान अर्थात अपरोक्षानुभूति दोनों है | यद्यपि तुलसीदास जी के मानस में साध्य भक्ति एवं साधन भक्ति में अंतर्विरोध दिखाई पड़ता है , जहां साध्य भक्ति को स्वतंत्र कहा गया है वही साधन भक्ति को साधना के अधीन बता दिया गया है | यहां एक बात समझनी होगी कि साधन भक्ति के बिना साध्य भक्ति नहीं प्राप्त की जा सकती क्योंकि साध्य भक्ति यदि सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा का स्वतंत्र रूप है तो वहीं साधन भक्ति परमात्मा के प्रति अंतः करण की वृत्ति है | अंतः करण की वृत्ति रूपी प्रकाशक बल्ब को निर्मल करना आवश्यक है इसलिए साधन की आवश्यकता है | प्रकाशक जितना ही निर्मल होगा विद्युत प्रवाह की भांति चिन्मयी शक्ति रूप भक्ति का उतना ही प्रकाश प्रकाशित होगा | निष्कर्ष यही निकलता है कि साध्य भक्ति स्वतंत्र है और साधन भक्ति साधन के अधीन है | इसी साध्य भक्ति के लिए "विनय पत्रिका" में तुलसीदास जी लिखते हैं "रघुपति भगत करत कठिनाई" अर्थात वह करने से नहीं स्वभाव से हो जाती है | साध्य भक्ति की यात्रा पुरुषार्थ और साधन से नहीं बल्कि स्वभाव से होती है | जब तक साधक विभाव में स्थित है तब तक वह साध्य भक्ति नहीं प्राप्त कर सकता | यदि वह करने से हो गया तो भक्ति स्वतंत्र नहीं बल्कि क्रिया के अधीन हो गई | भक्ति को स्वतंत्र इसलिए कहा गया है कि वह स्वयं जिसके अनुकूल हो जाए वही साध्य भक्ति प्राप्त कर सकता है क्योंकि जिस प्रकार साध्य भक्ति स्वतंत्र है उसी प्रकार स्वभाव भी स्वतंत्र है | भक्ति उसी की शक्ति है , उसी का प्रकाश है दोनों में चंद्रमा और उसकी चांदनी का संबंध है | भक्ति का मर्म बहुत ही रहस्यमय है इसे विधिवत जानने - समझने के लिए सत्संग की आवश्यकता होती है |*
*आज के आधुनिक युग में मनुष्य विभिन्न प्रकार से भक्ति करने का प्रयास करता है | मानस में एवं श्रीमद्भागवत महापुराण में नौ प्रकार की भक्ति बताई गई है | मनुष्य इन नौ प्रकार की भक्ति में से किसी एक को अपना करके अपने जीवन को धन्य करना चाहता है | परंतु मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि विडंबना यह है कि मानस की प्रथम भक्ति सत्संग से आज का मनुष्य दूर होता चला जा रहा है | जबकि बाबाजी स्पष्ट घोषणा कर देते हैं कि बिना सत्संग किये स्वतंत्र होने पर भी भक्ति किसी को प्राप्त नहीं हो सकती | वहीं दूसरी ओर वेदव्यास जी महाराज श्रीमद्भागवत की नवधा भक्ति की प्रथम भक्ति श्रवण को बताते हैं | आज कोई भागवत की प्रथम भक्ति करने को तैयार नहीं दीख रहा है | आज प्रत्येक मनुष्य स्वयं कहना चाहता है दूसरे की कुछ भी ना तो सुनना चाहता है और ना ही सुनने की इच्छा रखता है | जबकि सत्य है कि जब तक मनुष्य श्रवण करके ग्रहण नहीं करेगा तब तक वह सत्संग के मर्म को नहीं समझ पाएगा और जब तक मनुष्य को सत्संग का मर्म नहीं समझ में आएगा तब तक वह भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ने की बात छोड़ दो उस पथ पर अपने पद भी नहीं रख पाएगा | इसलिए यदि भक्ति प्राप्त करना है तो अपने सद्गुरु एवं अग्रजों के साथ सत्संग करने की आवश्यकता है और सत्संग करते समय उनके उपदेश को श्रवण करने की आवश्यकता है अन्यथा स्वतंत्र होते हुए भी साध्य भक्ति प्राप्त करने की बात तो बहुत दूर है मनुष्य साधन भक्ति भी नहीं कर पाएगा | ईश्वर को प्राप्त करने के यद्यपि अनेकों उपाय बताए गए हैं परंतु सबसे सरल साधन है भक्ति मार्ग और भक्ति मार्ग की प्राप्ति सत्संग के माध्यम से ही हो सकती है |*
*भक्ति स्वतंत्र है परंतु इस स्वतंत्र भक्ति को प्राप्त करने के लिए सतसंग एवं सदाचरण करते हुए अपने स्वभाव को भी स्वतंत्र करना होगा |*