*आदिकाल से ही इस धरती पर अनेकों भक्त हुए हैं जिन्होंने भगवान की भक्ति करके उनको प्राप्त करने का अनुभव किया है | अनेकों भक्तों तो ऐसे भी हुए जिन्होंने साक्षात भगवान का दर्शन भी किया है | भक्ति की महत्ता का विस्तृत वर्णन हमारे शास्त्र एवं पुराणों में देखने को मिलता है | भक्ति क्या होती है ? इसको बताते हुए हमारे शास्त्रों में लिखा है की भक्ति का अर्थ है प्रभु की निरंतर अनुभूति | यह ऐसी अनुभूति है जो दिखाई नहीं पड़ती है अपितु यह मनुष्य के अंतर की स्थिति है | संसार में जहां अनेकों दृश्य वस्तुएं हैं वहीं भक्ति को अदृश्य शक्ति माना गया है | जिस प्रकार फूलों में सुगंध , हवा में शीतलता एवं मनुष्य के प्रत्येक सांस के साथ भीतर जाती हुई प्राणवायु नहीं दिखाई पड़ती है उसी प्रकार भक्ति को देखा नहीं जा सकता है , इसका अनुभव मात्र किया जा सकता है | जब मानव महामानव बन जाता है और परमपिता परमात्मा के अस्तित्व को अपने भक्ति के रंग में रंग लेता है तब वह निराकार परमात्मै साकार होता है | जिस प्रकार गर्मी के महीने में एक बंद कमरे के भीतर बैठा हुआ मनुष्य कमरे के बाहर चल रही प्राकृतिक हवा का लाभ नहीं ले पाता है और उसे ऐसा आभास होता है कि आज गर्मी बहुत है | गर्मी से व्याकुल होकर जब वह मनुष्य अपने कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर निकलता है तो उसे आभास होता है कि गर्मी तो मात्र बंद कमरे में है बाहर तो प्रकृति ने शीतलता कर रखी है | ठीक उसी प्रकार मनुष्य ने अपने हृदय को अनेक प्रकार के अज्ञान रूपी दरवाजों में बंद कर रखा है जब तक वह उन दरवाजों को खोल करके भक्ति के वातावरण में नहीं निकलता है तब तक उसे भक्ति की अनुभूति नहीं हो सकती | ईश्वर कण-कण में विद्यमान है परंतु इसका आभास सबको नहीं हो सकता क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के भिन्न-भिन्न मानसिक स्थितियां हैं | भक्ति मनुष्य के अंतर की स्थिति है इसकी अनुभूति की जा सकती है देखा या दिखाया कभी नहीं जा सकता है |*
*आज के आधुनिक युग में भक्ति की अपेक्षा भक्ति करने एवं भक्त बनने का प्रदर्शन अधिक है , ऐसा करने वालों में भक्ति का भाव तो बहुत कम मात्रा में होता है परंतु उनका प्रदर्शन अधिक होता है | अनेक प्रकार की वेशभूषा में भक्ति का प्रदर्शन आज देखने को मिल रहा है परंतु जैसा कि हमारे शास्त्रों में लिखा है कि भक्ति प्रदर्शन की नहीं अपितु अनुभव के माध्यम से ही जानी जा सकती है | किसी चिन्ह या वेशभूषा के प्रदर्शन से इसे कदापि नहीं जाना या पाया जा सकता है | जहां प्रदर्शन होता है वहां से भक्ति अंतर्ध्यान हो जाती है क्योंकि जहाँ भक्तिं का प्रदर्शन होता है वहाँ भक्ति का व्यापार प्रारंभ हो जाता है वही आज देखने को मिल रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज देख रहा हूं कि भक्ति को प्राप्त करने के लिए लोगों के द्वारा अनेकों उपाय किए जाते हैं , अनेकों तीर्थ यात्राएं की जाती है परंतु लोगों को भक्ति नहीं प्राप्त होती तो इसका एक मूल कारण है की भक्ति को बाहर कभी भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है | भक्ति को अपने हृदय में ही जागृत करना पड़ता है और यह तभी जागृत हो सकती है जब मनुष्य के अंतर का अहंकार नष्ट होगा , क्योंकि भक्ति के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक मनुष्य के अंतर का अहंकार ही होता है | भक्ति की अवस्था ऐसी है कि जिसे किसी के साथ ना तो बांटा जा सकता है ना ही किसी के द्वारा छीना जा सकता है और ना ही चोर इसे चुरा सकता है | यह भक्तों की एक निजी अवस्था होती है | भक्ति तो सभी करना चाहते हैं परंतु भक्त कोई नहीं बनना चाहता यह आज की सबसे बड़ी विडंबना है | मानव शरीर मैं उपस्थित पंचतत्व मनुष्य को कभी भी भक्त नहीं बना सकते हैं और जब तक मनुष्य भक्त नहीं बनेगा तब तक भक्ति को नहीं प्राप्त कर सकता | आज यदि ऐसा नहीं हो पा रहा है तो उसका मूल कारण मनुष्य के अंतस का अहंकार |*
*भक्ति समर्पण का दूसरा रूप है जब तक मनुष्य समर्पित नहीं होता है तब तक उसे भक्ति की अनुभूति कदापि नहीं हो सकती | शेष तो आज भक्ति का बाजार एवं व्यापार अपने चरम पर है |*