*संपूर्ण विश्व में विविधता में एकता यदि कहीं देखने को मिलती है तो वह हमारा देश भारत है जहां विभिन्न धर्म जाति वर्ण के लोग एक साथ रहते हैं | हमारा देश एकमात्र ऐसा देश है जहां भिन्न-भिन्न जातियों के वंशज एक साथ रहते हैं और इन सब की मूल धरोहर है इनकी संस्कृति , सभ्यता तथा संस्कार | लोकपरम्परायें तथा लोकमान्यतायें अलग अलग होने पर भी यह भारत को विश्व में विशेष स्थान दिलाती हैं | मेरे भारत की विशालता का यह अनुपम उदाहरण है कि हिमालय से लेकर के हिंद महासागर तक विस्तृत रूप से फैले भूभाग पर अनेकों प्रकार की संस्कृतियां आपस में भिन्न होने के बाद भी एक साथ फल फूल रही है | "समष्टि में व्यष्टि" का इससे ज्वलन्त उदाहरण और कहीं देखने को नहीं मिल सकता | समस्त विश्व में हमारे देश भारत की पहचान विशेषकर उसकी लोकसंस्कृतियों के रूप में होती है | जिस प्रकार किसी भी देश की लोक परंपराएं उस देश को विशेष बनाती हैं उसी प्रकार हमारी लोक कलाएं , नाट्य , संगीत , नृत्य एवं परंपराएं हमारे देश भारत की अनमोल धरोहर रही हैं | अनेक भाषा भाषी प्रदेशों के लोग अपने - अपने प्रदेश की लोक परंपराओं को स्वयं में समेटे हुए हैं | गांवों में होने वाले लोक नाटक , नौटंकी एवं रामायण तथा महाभारत का चित्रण लोक कलाकारों के द्वारा इतिहास को प्रस्तुत करने का अनुपम उदाहरण रहा है , जिससे समाज अपने इतिहास एवं कथाओं से परिचित होता रहा है | यही हमारे देश की विशेषता रही है जिससे संपूर्ण विश्व में विशेष स्थान प्राप्त होता रहा है | विदेशियों ने हमारी लोक कलाओं को , हमारे इतिहास को जानने का भरपूर प्रयास किया है और आज भी कर रहे हैं | परंतु हम स्वयं आज के आधुनिक भारत में उसे भूलते जा रहे हैं |*
*आज के आधुनिक युग में हमारा देश भारत भी पाश्चात्य संस्कृति से स्वयं को नहीं बचा पा रहा है | लोक कलाएं जो कि जन्म , मृत्यु , विवाह एवं अनेक शुभ अवसरों पर देखने को मिलती थी आज विलुप्त होती जा रही है | मनुष्य जीवन अनेकों मांगलिक अवसर आते रहते हैं इन अवसरों पर होने वाले मांगलिक गीत हमारी लोक परंपराओं का अद्भुत चितण्र करते थे | परंतु आज मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि कोई भी मांगलिक कार्य हो तो महिलाओं के द्वारा गाए जाने वाला यह मंगल गीत नहीं दिखाई पड़ रहा है | उसके स्थान पर डीजे पर बजता हुआ धमाका और उस पर नृत्य करती हुई महिलाएं एवं पुरुष ही दिखाई पड़ रहे हैं | आज गांव में लोक नाटक की परंपरा लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर है , इतिहास एवं पौराणिक कथाओं का मंचन करने का एक सशक्त माध्यम लोक नाटक आज अपने अंतिम पड़ाव पर है या यह कहा जा सकता है कि लुप्त हो चुका है | विचार कीजिए कि हम अपनी सभ्यता संस्कृति एवं लोक परंपराओं को कहां छोड़ कर आ गये | हमारी लोक कलाएं साधारण नहीं अर्पित स्वयं में कुछ ना कुछ इतिहास समाहित किए हुए हैं | जहां एक और विदेशी हमारे देश के शास्त्रीय संगीत एवं लोकनृत्य को सीखने के लिए आतुर दिखाई पड़ रहे हैं वही हमारे देश के युवा पाश्चात्य संस्कृति को स्वयं में समावेशित करने के लिए लालायित हैं | शहरों की बात छोड़ दीजिए गांव में भी सिनेमाई संस्कृति हावी हो गई है जिसके चलते आने वाली पीढ़ी अपनी लोक कलाओं से परिचित नहीं हो पा रही है | आवश्यकता है अपनी धरोहर अर्थात लोक कलाओं को जीवित रखने की अन्यथा वह दिन दूर नहीं है जब हम स्वयं की संस्कृति को बिल्कुल ही भूल जायेंगे |*
*किसी नई संस्कृति को स्वयं में समावेशित करना कदापि गलत नहीं है परंतु उसके लिए अपनी मूल मान्यताओं / परंपराओं एवं लोक संस्कृति को भूल जाना महज मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता है |