!! भगवत्कृपा हि केवलम् !!
मानव के जीवन में मन का निर्माण एक सतत प्रक्रिया है | मन को साधने की कला एक छोटे बच्चे से सीखना चाहिए जो एक ही बात को बार बार दोहराते हुए सतत सीखने का प्रयास करते हुए अन्तत: उसमें सफल भी हो जाता है | मन की चंचलता से प्राय: सभी परेशान हैं | सामान्य जीवन में मन की औसत स्थिति होती है क भी वह स्थिर हो जाता है तो कभी तनावग्रस्त , कुछ क्षण के योगी भी बन जाता है तो अगले ही पल भोगी बनकर रोगी भी बन जाता है | कभी योगी एवं अगले क्षण भोगी बनने वाली स्थिति मन को तनावग्रस्त कर देती है | तनाव से मन टूट जाता है और नकारात्मकता की ओर अग्रसर हो जाता है | मन की दिशा और दशा को सुधारकर सकारात्मक करने के लिए मनुष्य को अपने जीवन की दिशा बदलकर सकारात्मक करनी होगी | क्योंकि यदि जीवन नहीं बदलेगा , जीवनशैली नहीं बदलेगी तो भला मन कैसे बदल सकता है ? मन नहीं तब तक नहीं बदलेगा जब तक संग नहीं बदलेगा | प्राचीनकाल में मन का रख रखाव करने के लिए , उसे शक्तिसम्पन्न एवं सकारात्मक बनाने के लिए अनेकों साधन थे जिसके माध्यम से मनुष्य अपने मन पर नियंत्रण रख पाने में सफल होता था | जहाँ एक मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ने सकारात्मकता , संस्कार आदि से अपने मन पर नियंत्रण रखने की कला सीखी थी , वहीं त्रैलोकेय विजयी होने के बाद भी रावण जैसा प्रकाण्ड विद्वान यदि पतित हुआ तो उसका एक ही प्रमुख कारण था कि उसका अपने मन पर नियंत्रण नहीं था | जीवन में मन की दिशा एवं दशा बहुत महत्त्व रखती है , जिसने यह रहस्य जान लिया उसरा मानव जीवन पाना सफल हो गया |*
*आज संसार में इस शरीर को बनाने के लिए , शरीर को स्वस्थ को दिखाने के लिए अनेकों प्रकार की व्यायामशालाएं जगह जगह पर मिल जाएंगी , जहां लोग नई नई मशीनों के द्वारा व्यायाम करके अपने शरीर को बलवान बनाने में लगे हुए हैं , परंतु दुर्भाग्य है कि मन को बलवान बनाने के लिए , मन के निर्माण के लिए कहीं कोई व्यायामशाला नहीं दिखाई पड़ती है | कोई ऐसी प्रयोगशाला / कार्यशाला नहीं है जो मन का निर्माण कर सके , जहां अंतस चेतना को विकसित करने की बात हो | यही कारण है कि आज मनुष्य का मन दिन प्रतिदिन अस्थिर होता चला जा रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि आज समाज में प्रतिस्पर्धा है , प्रतियोगिता है , वैमनस्य है , वैर है एवं अनेकों प्रकार की नकारात्मकता है जिसे मनुष्य अपने व्यक्तित्व में लगातार सम्मिलित करता चला जा रहा है | कुछ लोग कहते हैं कि मन हमारा चंचल है , अस्थिर है | तो उसको स्थिर बनाने के लिए स्वयं प्रयास करना पड़ेगा | मानव जीवन बड़ा दुर्लभ और यह एक पुल की तरह होता है एक छोर पर देवत्व है तो दूसरी छोर पर पशुता विद्यमान है | मनुष्य का मन देवत्व की ओर जाएगा या पशुता की ओर यह उसके संस्कारों एवं वातावरण पर निर्भर करता है | मनुष्य प्रायः तनाव में रहता है और इसी मन के तनाव के कारण मनुष्य रोता रहता है | यह स्पष्ट है कि जब-जब जीवन की दिशा गलत होगी , जब जब जीवन के मूल्य पतित होंगे तब तब मन चंचल होगा | मन की चंचलता को रोकने के लिए अपने जीवन की दशा को बदलना होगा , जीवन शैली को बदलना होगा , यदि ऐसा करने में मनुष्य सफल हो जाता है तो मन पर नियंत्रण करना सरल हो सकता है | इसके अतिरिक्त कोई दूसरा साधन इस संसार में नहीं है जो अपने मन को नियंत्रित करने में सहायक है |*
*इस संसार में समय-समय पर उत्पन्न होने वाले परिदृश्य एवं परिस्थितियां तो नहीं बदली जा सकती हैं लेकिन अपने मन की स्थिति को बदलना मनुष्य के बस में है और सदा रहेगा | आवश्यकता है सतत प्रयास करने की |*