*इस संसार में मनुष्य येनि में जन्म लेने के बाद जीव अनेकों प्रकार के ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है | प्राय: लोग भौतिक ज्ञान प्राप्त करके स्वयं को विद्वान मानने लगते हैं परंतु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आध्यात्मिक एवं आत्मिक ज्ञान (आत्मज्ञान) प्राप्त करने के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहते हैं | आत्मज्ञान प्राप्त किये बिना मनुष्य को इस असार संसार का रहस्य नहीं समझ में आ सकता है | आत्मज्ञान प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय है अपने मन को शांत करना जब तक चित्त को शान्ति की प्राप्ति नहीं होगी तब तक ज्ञान प्राप्त होना सम्भव ही नहीं है | जिस प्रकार किसी स्वच्छ जल के तालाब में किसी जानवर के घुस जाने पर वह स्वच्छ जल गंदा होकर पीने योग्य नहीं रह जाता | परंतु धीरे धीरे जब जानवर के घुसने से उठा कीचड़ (धूल) बैठने लगता है तो कुछ देर के बाद वह जल पुन: शांत हो जाता है और तब वह शांत जल स्वच्छ होकर पीने योग्य होता है | उसी प्रकार मनुष्य का मन भी एक स्वच्छ तालाब है परंतु इस मन रूपी तालाब में पल पल कुविचार रूपी पता नहीं कितने जानवर उछल कूद मचाते रहते हैं | इन कुविचारों से उत्पन्न कुसंस्कारों के कारण ही मानव मन अपवित्र एवं अस्थिर हो जाता है | निरंतर अभ्यास एवं ध्यान की प्रक्रिया से प्रत्येक मनुष्य को इस मन को स्थिर एवं शांत करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि जब तक मन स्थिर , शांत एवं पवित्र नहीं होगा तब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती | प्रत्येक साधक को अपनी साधना में निरंतरता एवं धैर्य बनाये रखते हुए ध्यान की गहराई में उतरने का प्रयास करना चाहिए | जब साधक ध्यान की गहराई उतर जाता है तब उसका मन पूर्णरूप से स्थिर , शांत एवं पवित्र होकर समाधिस्थ हो जाता है | जब साधक इस स्थिति में पहुँच जाता है तो उसे स्वत: आत्मज्ञान की उपलब्धि हो जाती है | यही साधना एवं आत्मज्ञान प्राप्त करने का मर्म (रहस्य) है |*
*आज के आधुनिक एवं चकाचौंध भरे युग में अनेकों विद्वान , ज्ञानी आदि देखने को तो मिल जाते हैं परंतु आत्मज्ञानी मिलना कठिन होता जा रहा है | आज आधुनिक वैज्ञानिकों ने मानवमात्र के लिए लगभग सभी सुख सुविधायें उपलब्ध कराई हैं परंतु मनुष्य के मन की शान्ति खो गयी है | मनुष्य के मनरूपी तालाब में सदैव हलचल मची रहती है | कुविचार एवं शंकारूपी अनेक जानवर सदैव उथल पुथल मचाये रहते हैं | मनरूपी तालाब का जल इतना गन्दा हो गया है कि वह स्थिर ही नहीं हो पा रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह नहीं कह रहा हूं कि आज आत्मज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक नहीं है , परंतु यह भी सत्य है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक अपने मन को स्थिर नहीं रख पा रहे हैं | अनेकों लोग ऐसे भी हैं जो सत्संग के माध्यम से अपने मन को शांत करने का प्रयास करते हैं परंतु अगले ही क्षण उनके मन में पुन: हलचल होने लगती है | जब तक मनुष्य स्वयं को कर्मयोगी नहीं मानेगा तब तक उसका मन स्थिर हो ही नहीं सकता है , मन में सदैव हलचल मची रहेगी और जब तक मनुष्य का मन स्थिर एवं शांत नहीं होगा तब तक उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती | मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह अपने आसपास होने वाली क्रियाओं के द्वारा स्वयं को जोड़ लेता है | यद्यपि वह जानता है कि जो भी कर्म हो रहे हैं उसका आधार ईश्वर है परंतु स्वयं को कर्ता मानकर कभी सुख एवं कभी दुख का भोग करने वाला मनुष्य कभी भी स्थिर एवं शांत नहीं हो सकता | जिसने यह मान लिया कि मनुष्य तो निमित्त मात्र है शेष जो भी कर्म हो रहे हैं वह सब ईश्वर कर रहा है उसका ही मन स्थिर होने की स्थिति में पहुंच सकता है | अपने किसी भी स्वजन / बंधुओं के द्वारा किए गए कर्मों से जिसे ना दुख होता है ना सुख होता है वही सच्चा संत एवं स्थिर मन कहा जा सकता है और आज के युग में जहां मनुष्य "मैं और मेरा" "तू और तेरा" के दलदल में फंसा है वहाँ आत्मज्ञान प्राप्त करना एक दिवास्वप्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं है | ऐसे में किसी और के कर्मों को ना देखते हुए मनुष्य को अपने कर्म पर ध्यान देकर सदैव आगे बढ़ते हुए अपने मन से विचार एवं शंका रूपी जानवरों को मनरूपी तालाब से निकालने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि जब तक मन में विचार रूपी जानवर हलचल मचाये रखेंगे तब तक ना तो मन स्थिर हो सकता है और ना ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है क्योंकि बिना शांति के ज्ञान की उपलब्धि कदापि नहीं हो सकती |*
*ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को सांसारिक उद्योग करने की अपेक्षा अपने मन को शांत करने का प्रयास करना चाहिए | जिसका मन शांत हो गया वही सच्चा आत्मज्ञानी कहा जा सकता है |*