ए चांद जरा यहां कुछ देर ठहर
अब न कोई करना अगर मगर
मेरा चांद होगा अभी इन बाहों में
फिर मत ए कहना मैं रहूं किधर ।।
घटता बढ़ता रहता है निस बासर
बस पूनम में संपूर्ण कला आदर
सौंदर्य पे इतराना कोई वजह नहीं
मेरा चांद है तुमसे कितना सुन्दर ।।
एकांत देख निस में रुक जाते हो
कामाग्नि वाणों से तड़पा जाते हो
मैं आज हूं उन्मुक्त यूं प्रिय बाहों मे
या तुम सुन्दर हो या वो है बेहतर ।।
तुम शिवजी के शीश बिराजते हो
तुम सिंधु सुत बिष बंधु कहाते हो
अवगुणों की खान अभिसापित भी
फिर भी जग बंदित न कोई बेहतर।।
तुम भी विरही हो मन गति समझो
चकोर चकोरी की पीड़ा को समझो
राजन की चांदनी कैसे यूं जलाती है
ए तुम समझो मन कितना है कातर ।।
राजन मिश्र
अंकुर इंक्लेव
करावल नगर दिल्ली 94