*दान की परिभाषा:-----*
*द्विहेतु षड्धिष्ठानाम षडंगम च द्विपाक्युक् !*
*चतुष्प्रकारं त्रिविधिम त्रिनाशम दान्मुच्याते !!*
*अर्थात :-- “दान के दो हेतु, छः अधिष्ठान, छः अंग, दो प्रकार के परिणाम (फल), चार प्रकार, तीन भेद और तीन विनाश साधन हैं, ऐसा कहा जाता है ।”*
*👉 दान के दो हेतु हैं :--- दान का थोडा होना या बहुत होना अभ्युदय का कारण नहीं होता, अपितु श्रद्धा और शक्ति ही दान की वृद्धि और क्षय का कारण होती है ! यदि कोई बिना श्रद्धा के अपना सर्वस्व दे दे अथवा अपना जीवन ही निछावर कर दे तो भी यह उसका फल नहीं पाता, इसलिए सबको श्रद्धालु होना चाहिए ! श्रद्धा से ही धर्म का साधन किया किया जाता है, धन की बहुत बड़ी राशि से नहीं | देहधारियों के लिए श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सात्विक, राजसी और तामसी | सात्विक श्रद्धा वाले पुरुष देवताओं की पूजा करते हैं, राजसी श्रद्धा वाले पुरुष यक्ष और राक्षसों की पूजा करते हैं और तामसी श्रद्धा वाले पुरुष दैत्य, पिशाच की पूजा करते हैं | शक्ति के बारे में कहा गया है कि जो कुटुंब के भरण पोषण से अधिक हो वही धन दान देने योग्य है वही मधु के सामान है और पुण्य करने वाला है और इसके विपरीत करने पर वह विष के समान होता है | अपने आत्मीयजन को दुःख देकर किसी सुखी और समर्थ पुरुष को दान करने वाला मधु की जगह विष का ही पान कर रहा है | वह धर्म के अनुरूप नहीं, विपरीत ही चलता है | जो वस्तु बड़ी तुच्छ हो अथवा सर्व साधारण के लिए उपलब्ध हो वह ‘सामान्य’ वास्तु कहलाती है | कहीं से मांग कर लायी हुई वास्तु को ‘याचित’ कहते हैं | धरोहर का ही दूसरा नाम ‘न्यास’ है | बंधक रखी हुई वस्तु को ‘आधि’ कहते हैं | दी हुई वास्तु ‘दान’ के नाम से पुकारी जाती है | दान में मिली हुई वास्तु को ‘दान धन’ कहते हैं | जो धन एक के यहाँ धरोहर रखा हो और जिसके यहाँ रखा हो वह यदि उस धरोहर को किसी और को दे दे तो उसे ‘अन्वाहित’ कहते हैं | जिस को किसी के विश्वास पर उसके यहाँ छोड़ दिया हो उस धन को ‘निक्षिप्त’ कहते हैं | वंशजो के होते हुए भी अपना सब कुछ दान करने को ‘ सान्याय सर्वस्व दान’ कहते हैं | विद्वान पुरुष को उपरोक्त नव वस्तुओ का दान नहीं करना चाहिए वरना वह बड़े पाप का भागी होता है |*
*👉 छः अधिष्ठान – धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, हर्ष और भय – ये दान के छः अधिष्ठान बताये गए हैं | सदा ही किसी प्रयोजन की इच्छा न रखकर केवल धर्मबुद्धि से सुपात्र व्यक्तियों को जो दान दिया जाता है उसे ‘धर्म दान’ कहते हैं |*
*मन में कोई प्रयोजन रखकर ही प्रसंगवश जो कुछ दिया जाता है, उसे ‘अर्थ दान’ कहते हैं | वह इस लोक में ही फल देने वाला होता है |*
*स्त्रीगमन, सुरापान, शिकार और जुए के प्रसंग में अनधिकारी मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक जो कुछ दिया जाता है, वह ‘काम दान’ कहलाता है |*
*भरी सभा में याचको के मांगने पर लज्जावश देने की प्रतिज्ञा करके उन्हें जो कुछ दिया जाता है वह ‘लज्जा दान’ माना गया है |*
*कोई प्रिय काम देख कर या प्रिय समाचार सुन कर हर्षोल्लास से जो कुछ दिया जाता है, उसे धर्मविचारक ‘हर्ष दान’ कहते हैं |*
*निंदा, अनर्थ और हिंसा का निवारण करने के लिए अनुपकारी व्यक्तियों को विवश हो कर जो कुछ दिया जाता है, उसे ‘भय दान’ कहते हैं |*
*👉 छः अंग – दाता, प्रतिग्रहीता, शुद्धि, धर्म युक्त देय वस्तु, देश और काल – ये दान के छः अंग माने गए हैं | दाता निरोग, धर्मात्मा, देने की इच्छा रखने वाला, व्यसन रहित, पवित्र तथा सदा अनिन्दनीय कर्म से आजीविका चलने वाला होना चाहिए | इन छः गुणों से दाता की प्रशंसा होती है | सरलता से रहित, श्रद्धाहीन, दुष्टात्मा, दुर्व्यसनी, झूठी प्रतिज्ञा करने वाला तथा बहुत सोने वाला दाता तमोगुणी और अधम माना गया है | जिसके कुल, विद्या और आचार तीनो उज्जवल हो, जीवन निर्वाह की वृत्ति भी शुद्ध और सात्विक हो, वह ब्राह्मण दान का उत्तम पात्र (प्रतिग्रह का सर्वोत्तम अधिकारी) कहा जाता है | याचकों को देख कर सदा प्रसन्न मुख हो, उनके प्रति हार्दिक प्रेम होना, उनका सत्कार करना तथा उनमें दोष द्रष्टि न रखना, ये सब सद्गुण दान में शुद्धि कारक माने गए हैं | जो धन किसी दुसरे को सताकर न लाया गया हो, अति कुंठा उठाये बिना अपने प्रयत्न से उपार्जित किया गया हो, वह थोडा हो या अधिक, वही देने योग्य बताया गया है | किसी के साथ कोई धार्मिक उद्देश्य लेकर जो वस्तु दी जाती है उसे धर्मयुक्त देय कहते हैं | यदि देय वस्तु उपरोक्त गुणों से शून्य हो तो उसके दान से कोई फल नहीं होता | जिस देश अथवा काल में जो जो पदार्थ दुर्लभ हो, उस उस पदार्थ का दान करने योग्य वही वही देश और काल श्रेष्ठ है; दूसरा नहीं | इस प्रकार दान के छः अंग बताये गए हैं |*
*👉 दो परिणाम (फल) –महात्माओं ने दान के दो परिणाम (फल) बतलाये हैं | उनमें से एक तो परलोक के लिए होता है और एक इहलोक के लिए | श्रेष्ठ पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है, उसका परलोक में उपभोग होता है और असत पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है, वह दान यहीं भोग जाता है |*
*👉 चार प्रकार –ध्रुव, त्रिक, काम्य और नैमित्तिक – वैदिक दान मार्ग के चार प्रकार बतलाये गये हैं | कुआँ बनवाना, बगीचे लगवाना तथा पोखर खुदवाना आदि कार्यों में, जो उपयोग में आते हैं, धन लगाना "ध्रुव" कहा गया है | प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है, उस नित्य दान को ‘त्रिक’ कहते हैं | संतान, विजय,ऐश्वर्य, स्त्री और बल आदि के निमित्त तथा इच्छा पूर्ती के लिए जो दान किया जाता है, वह ‘काम्य’ कहलाता है | नैमित्तिक दान तीन प्रकार का बतलाया गया है | जो ग्रहण और संक्रांति आदि काल की अपेक्षा से दान किया जाता है, वह ‘कालाक्षेप’ नैमित्तिक दान है | श्राद्ध आदि क्रियाओं की अपेक्षा से जो दान किया जाता है, वह ‘क्रियाक्षेप’ नैमित्तिक दान है तथा संस्कार और विध्या अध्ययन आदि गुणों की अपेक्षा रख कर जो दान दिया जाता है, वह ‘गुणाक्षेप’ नैमित्तिक दान है |*
*👉 तीन भेद – आठ वस्तुओं के दान उत्तम माने गए हैं | विधि के अनुसार किये गए चार दान उत्तम माने गए हैं और शेष कनिष्ठ माने गए हैं | यही दान की त्रिविधिता है जिसे विद्वान लोग जानते हैं | गृह, मंदिर या महल, विध्या, भूमि, गौ, कूप, प्राण और स्वर्ण – इन वस्तुओं का दान अन्य वस्तुओं की अपेक्षा उत्तम माना गया है | अन्न, बगीचा, वस्त्र तथा अश्व आदि वाहन – इन मध्यम श्रेणी के द्रव्यों के दान को मध्यम दान कहते हैं | जूता, छाता, बर्तन, दही, मधु, आसन, दीपक, काष्ठ और पत्थर आदि वस्तुओं के दान को श्रेष्ठ पुरुषों ने कनिष्ठ दान बताया है |*
*👉 दान नाश के तीन हेतु – जिसे देकर पीछे पश्चाताप किया जाए, जो अपात्र को दिया जाए और जो बिना श्रद्धा के अर्पण किया जाए – वह दान नष्ट हो जाता है | पश्चाताप, अपात्रता और अश्रद्धा – ये तीनो दान के नाशक हैं | यदि दान देकर पश्चाताप हो तो वह असुर दान है, जो निष्फल माना गया है | अश्रद्धा से जो दिया जाता है वह राक्षस दान कहलाता है | वह भी व्यर्थ होता है | ब्राह्मण को डांट फटकार कर और कटुवचन सुना कर जो दान दिया जाता है अथवा दान देकर जो ब्राह्मण को कोसा जाता है वह पिशाच दान कहते हैं और उसे भी व्यर्थ समझाना चाहिए | यह तीनो भाव दान के नाशक हैं |*