*सनातन धर्म के अनुयायी अपने पितरों को प्रसन्न करने के लिए धर्म और शास्त्रों के अनुसार हविष्ययुक्त पिंड को प्रदान करते हैं यही कर्म श्राद्ध कहलाता है | जब मनुष्य अपने पितरों के लिए श्रद्धा करते हैं तो इससे उनके पितरों को शांति मिलती हैं और वे सदैव प्रसन्न रहते हुए दीर्घायु, प्रसिद्धि एवं कुसलता प्रदान करते हैं | प्रत्येक पितृपक्ष व प्रत्येक अमावस्या को पितरों का श्राद्ध किये जाने का विधान है | जब किसी मृतक की अंत्येष्टि कर्म से लेकर सपिण्डन तक विधिवत नहीं हो पाता है तो मृतक पितर प्रेतत्व को प्राप्त हो जाते हैं | अपनी वंश परंपरा में होने वाले अनेक प्रकार के दैहिक , दैविक तथा भौतिक तापो के उपशमन के लिए "त्रिपिंडी श्राद्ध" करने की लोकमान्य परंपरा है | वंश में मृत असद्गति प्राप्त प्राणियों के द्वारा अनेक प्रकार के शारीरिक , मानसिक पीड़ा के साथ ही संतान परंपरा की वृद्धि हो ना इत्यादि अनेक ऐसे उपद्रव है जिनको विवश होकर के मनुष्य सहता रहता है | यह उपर्युक्त प्रेत बाधाएं अपने कुल में अथवा अन्य कुल में उत्पन्न असद्गति प्राप्त प्रेतों के द्वारा की गई होती है | यहां पर यह आवश्यक नहीं है यह प्रेत अपने ही कुल के हों | अन्य जाति वंश परंपरा में उत्पन्न हुए जीव भी जिनसे द्वेष - प्रीति तथा धन-धान्य आदि का संबंध रहा हो वह भी भूत-प्रेत , पिशाच आदि योनियों को प्राप्त होकर के उपर्युक्त उपद्रवों को करते हैं | इस प्रकार पीड़ा पहुंचाने वाले भूत प्रेत आदि के रूप में होकर सात्विक , राजस तथा तामस के रूप में द्युलोक , अंतरिक्ष तथा पृथ्वीलोक में अतृप्त होकर भ्रमण करते रहते हैं | उनमें सतोगुण प्रधान प्रेत विष्णुमय , रजोगुण प्रधान प्रेत ब्रह्ममय एवं तमोगुण प्रधान प्रेत रुद्रमय कहलाते हैं | त्रिपिंडी श्राद्ध के माध्यम से इन्हें उत्तम लोग प्राप्त कराने की विधि है | त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए मुख्य रूप से काशी में पिशाचमोचन तीर्थ , गया में प्रेतशिला तीर्थ तथा अन्यान्य तीर्थ स्थल उपयुक्त होते हैं | इसके अतिरिक्त किसी भी पुण्य सलिला नदी अथवा सरोवर के तट पर इसे संपन्न किया जाता है | यदि यह स्थान भी सुगमता से सुलभ न हो तो यह श्राद्ध शिवालय , तुलसी अथवा पीपल के वृक्ष के समीप किया जा सकता है |*
*आज के आधुनिक युग में जहां मनुष्य अपने नित्य कर्म को भूलता चला जा रहा है वहीं वह कुछ मानना भी नहीं चाह रहा है , जिसके परिणामस्वरूप देवताओं , ऋषियों एवं पितरों के द्वारा उनको अनेकों कष्ट भी प्राप्त हो रहे हैं | यथासमय पितरों को तर्पण श्राद्ध आदि न करने वाले प्राय: यह कहते हैं कि हमने तो अपने पिताजी का गया श्राद्ध कर दिया है उसके बाद फिर हमारी कुंडली में पितृदोष क्यों है ? हमको त्रिपिंडी श्राद्ध कराने की क्या आवश्यकता है ? हमारे पितर प्रेत योनि में कैसे जा सकते हैं ? ऐसे सभी लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि जिन पितरों के किसी कारणवश अंतिम संस्कार एवं उसके बाद के कृत्य विधि विधान के साथ नहीं हो पाते हैं तथा जिन पितरों को लगातार तीन वर्षों तक तर्पण एवं श्राद्ध आदि नहीं प्राप्त होता है वही पितर प्रेत योनि में चले जाते हैं | इसके अतिरिक्त यदि किसी ने किसी की जमीन पर कब्जा कर लिया है , आपके पूर्वजों ने किसी की हत्या कर दी है या आपके द्वारा जिसे बहुत प्रेम दिया जा रहा है ऐसे मनुष्य भी जब मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो उनकी आत्मा अतृप्त होती है और वह प्रेत योनि को प्राप्त करके आपके आसपास ही रहते हुए आपकी क्षति करते रहते हैं | ऐसी पीड़ा से पीड़ित मनुष्य को त्रिपिंडी श्राद्ध करके अतृप्त आत्माओं (न तो जिनके कुल का पता होता है ना ही गोत्र का पता होता है ) को सद्गति प्राप्त कराके पितृदोष प्रेत दोष से मुक्ति पाने का उपयोग करना चाहिए | त्रिपिंडी श्राद्ध के क्रम में किसी नदी या सरोवर में जाकर के स्नान करके पितरों का तर्पण , ऋषि तर्पण देव तर्पण करने के बाद भगवान शालिग्राम का विधिवत पूजन करें , उसके बाद त्रिपिंडी श्राद्ध का प्रतिज्ञा संकल्प करके ब्रह्मा विष्णु एवं रूद्र कलश की स्थापना करके उसपर प्रेत मूर्तियों की प्रतिष्ठा करके उनका विधिवत पूजन करें | तदन्तर अतृप्त प्रेतों के लिए जौ , चावल एवं काले तिल का पिंड बनाकर के पिंडदान करें | सतोगुणी प्रेत के लिए बिजौरा निंबू , रजोगुणी प्रेत के लिए जंभीर फल तथा तामस प्रेतों के लिए खजूर के फल के साथ अर्घ्य दिया जाता है | वैदिक मंत्रों के द्वारा भगवान शालग्राम की मूर्ति एवं प्रेत मूर्तियों का तर्पण होता है | इस प्रकार विधि विधान के साथ त्रिपिंडी श्राद्ध करने से मनुष्य के ज्ञाताज्ञात पितर उत्तम लोक को प्राप्त करते हैं |*
*सनातन धर्म में समय-समय पर उत्पन्न हुए अनेक व्यवधानों के लिए उपाय भी बताये गये हैं आवश्यकता हैं इन्हें समझने की |*