!! भगवत्कृपा हि केवलम् !! *इस धरा धाम पर जन्म लेने के बाद मनुष्य का परम उद्देश्य होता है भगवत्प्राप्ति , परंतु भगवान की कृपा के साथ साथ मनुष्य को माया भी चारों ओर से घेरे रहती है | मनुष्य के द्वारा आदिकाल से भगवान को प्राप्त करने के लिए अनेकों उद्योग किए जाते रहे हैं | हमारे
धर्म ग्रंथों में भी भगवान को प्राप्त करने के अनेकों साधन बताए गए हैं | भगवान को प्राप्त करने का सबसे सरल साधन है भगवान के नाम , रूप , लीला एवं धाम का अवलंब लेकर के मनुष्य मुक्ति पा सकता है | नाम का संकीर्तन कर के , रूप का दर्शन करके , लीला को श्रवण करके एवं भगवान की पावन पुरियों (धाम) में निवास (कल्पवासादि) करके मनुष्य भगवान के सामीप्य का अनुभव करता रहा है , परंतु सबके लिए न तो भगवान की पुरिओं का दर्शन सुलभ है और ना ही लीला को श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त होता है | इसका सबसे साधन हमारे महापुरुषों ने सत्संग को बताया है | सत्संग में भगवान के नाम रूप लीला एवं धाम सब का वर्णन एवं सब का आनंद मनुष्य को प्राप्त हो जाता है | कहीं दर्शन करने जाना है तो उसमें धन लगना परंतु बिना धन लगाए , मेहनत बिना मेहनत किए यदि भगवान का सामीप्य कहीं प्राप्त होता है तो वह है सत्संग | भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्वयं कहां है :-- "न रोधयति मां योगो , न साख्यं धर्म एव च ! न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो , नेष्टापूर्तं च दक्षिणा" !! अर्थात :- भगवान कहते हैं संसार में जितनी भी आसक्तियाँ हैं उन्हें सतसंग नष्ट कर देता है | यही कारण है कि जिस प्रकार मुझे सत्संग बस में कर लेता है वैसा साधन न तो सांख्य , न धर्मपालन और न ही स्वाध्याय है | तपस्या , त्याग ईष्टापूर्ति और दक्षिणा से भी मैं वैसा नहीं प्रसन्न होता हूं जितना सत्संग से प्रसन्न होता हूं | व्रत , यज्ञ , वेद , तीर्थ , यम , नियम भी सत्संग के समान मुझे बस में करने की सामर्थ नहीं रखते हैं |* *आज के भौतिकवादी युग में पूजा-पाठ व्रत इत्यादि तो मनुष्य करता ही रहता है , इसके अतिरिक्त भी अनेकों प्रकार की भक्ति करता है | अनेक लोगों ने भव्य मंदिरों का निर्माण भी करवाया और उन मंदिरों में प्रायः भागवत कथाएं भी होती रहती हैं परंतु इतना सब करने के बाद ही मनुष्य स्वयं को दुखी ही दर्शाता है | मनुष्य के दुखी रहने का कारण मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यही समझ पा रहा हूं कि मनुष्य उपरवर्णित कर्म तो किए जा रहा है परंतु अधिकतर सारे कर्म दिखावे के लिए ही लोग करने लगे हैं | बड़ी-बड़ी कथाओं का आयोजन करने वाले धनाढ्य स्वयं बैठकर उन कथाओं को नहीं सुन पाते हैं क्योंकि वह तो व्यवस्थाओं का हवाला देकर के सत्संग का त्याग करते रहते हैं | यही उनका परम दुर्भाग्य है | संसार का प्रत्येक मनुष्य ना तो भगवान का मंदिर बनवा सकता है भगवान के धामों में पहुंचने का सामर्थ्य रखता है , तो भगवान को प्राप्त करने का सबसे सरल साधन सत्संग का भी त्याग करके अपने दुर्भाग्य को निमंत्रण दे रहा है | भगवान की लीला श्रवण करके मनुष्य में जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती हैं और वह अपनी जिज्ञासाओं के माध्यम से कुतर्क करने लगता है | भगवान की लीला तो माया है ही | भगवान की लीला को देख कर के जगतजननी मैया पार्वती को , भगवान के वाहन गरुड़ को भी मोह हो गया था उनको भी जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी | परंतु उस जिज्ञासा में कुतर्क नहीं था | सत्संग करके ही उनकी जिज्ञासाओं एवं उनके मोह का विनाश भी हुआ | आज मनुष्य सत्संग की अपेक्षा कुतर्क ज्यादा करने लगा है और भगवान के नाम रूप लीला धाम के महत्व को न समझ कर के भगवान की माया के वशीभूत हो रहा है |* *आज मनुष्य अपने धन एवं
ज्ञान के अहंकार में सत्संग रूपी सरिता में स्नान नहीं करना चाहता , और दिखावा दुनिया भर का करता है | यदि वास्तव में प्रभु का सामीप्य पाना है तो सत्संग का मार्ग बिना कुतर्क के अपनाना पड़ेगा |*