अँधेरा जब किसी इंसान के जीवन में आया है
तन्हा चलना पड़ा है साथ में रहता ना साया है
बड़ी मजबूरियों में रोशनी बिन उम्र गुजरी है
सफ़र ये ज़िंदगी का देख लो मैंने निभाया है
मुफलिसी दौर ऐसा है सभी पीछा छुड़ाते है
अमीरों ने तो ऐसे वक्त में भी दिल दुखाया है
खुदाया खेल ये कैसे समझ आते नहीं मुझको
वही तो मौज लेता है जिसने सबको सताया है
परेशां शख्स वो हर एक है मधुकर जहाँ में आज
जिसने अपना समझ के बोझ दूजों का उठाया है