जलो कितना भी तुम सूरज ताप अपना दिखाने को
रोक फिर भी न पाओगे तुम आती बहारों को
मकां ऊंचा बनाने की हम ही तो भूल कर बैठे
समझ आता नहीं कैसे गिराएं अब दीवारों को
कहीं गहराई जो होती तो हम भी सर झुका लेते
झुकाएं सर कहो कैसे देखने इन मीनारों को
बड़ी शातिर है ये दुनिया इसे हलके में मत लेना
अकेला छोड़ देती है ये मुफ़लिस बीमारों को
किसी को दोष क्या देना लुटे जो कारवां के संग
जाने क्या हो गया हमको जो ना समझे इशारों को
दुल्हन तो बैठ डोली में मधुर सपने बुनें मधुकर
बोझ सहना ही पड़ता है लेकिन बेबस कहारों को