*भारतीय संस्कृति और सभ्यता में एक नाम बहुत ही सम्मान एवं श्रद्धा के साथ लिया जाता है जिसे गुरु या सद्गुरु कहा गया है | इस छोटे से नाम इतनी प्रभुता छिपी हुई है जिसका वर्णन स्वयं मैया शारदा एवं शेषनाग जी भी नहीं कर पा रहे हैं | गुरु को साक्षात परब्रह्म माना गया है यह मान्यता यूँ ही नहीं कही गई है बल्कि इसके पीछे विशेष कारण यह है कि जिस प्रकार उस पारब्रम्ह परमात्मा की इच्छामात्र से सृष्टि का सृजन हो जाता है उसी प्रकार गुरु की कृपा से मनुष्य मनुष्य कहे जाने की योग्य बनता है ¢ जो अंधकार से प्रकाश की ओर जीव को लेकर जाय उसे गुरु कहा गया है | जिस प्रकार एक कुम्हार मिट्टी को गीला करके उसे पीट-पीटकर मनचाहे बर्तन एवं खिलौने तैयार कर देता है उसी प्रकार गुरु मनुष्य को उचित ज्ञान दे कर के तैयार करता है | वैसे तो संसार में एक से एक महान गुरु हुए हैं परंतु गुरुओं की श्रृंखला में जिसे सर्वोच्चता प्राप्त है , जो मनुष्य को प्राथमिक बोध करा करके जीवन का प्रथम ज्ञान प्रदान करती है उस जगतगुरु को माता कहा जाता है | जिस प्रकार संसार में गुरुओं की एक लंबी पंक्ति देखने को मिलती है उसी प्रकार अपने ही गुरु का अपमान करके गुरु द्रोही कहे जाने वालों की भी कमी नहीं रही है , परंतु इतिहास साक्षी है कि जिसने भी अपने गुरु का अपमान करने का प्रयास किया है उसकी क्या गति हुई है | लंका के राजा रावण का गुरु भगवान शिव को माना जाता है उसने अपने बल के घमंड में उन्हीं के निवास स्थान कैलाश को उठाना चाहा जिससे गुरु का अपमान तो हुआ ही साथ ही उसको उसके इस कृत्य ने उसे विनाश की ओर अग्रसर कर दिया , वहीं अयोध्या के राजा सत्यव्रत ने अपने गुरु का अपमान करके विश्वामित्र के द्वारा स्वर्ग जाने की सोंची तो उनको भी त्रिशंकु के रूप में वायुमंडल में उल्टा लटकना पड़ा | कहने का तात्पर्य है गुरु से द्रोह एवं गुरु का अपमान करके कोई भी ना तो समाज में सम्मानित रह पाया है और ना ही अपने जीवन में सुखी रह सकता है क्योंकि मनुष्य इस संसार में जो कुछ भी है अपने गुरुओं की ही कृपा से है , परंतु आज के मनुष्य ने सनातन के सारे विधान पलटने का प्रयास किया है जिसका परिणाम भी वह भुगत रहा है |*
*आज समाज में गुरु का अपमान करना , उन्हें अपशब्द कहना एक साधारण सी बात हो गई है | आज मनुष्य इतना ज्यादा विद्वान हो गया है उसे अपने ज्ञान के समक्ष बाकी सब व्यर्थ प्रतीत होता है | मनुष्य को यह भी विचार करना चाहिए कि आखिर इस ज्ञान को उसने प्राप्त कहां से किया ? आज समाज के अधिकतर घरों में जीवन की प्रथम शिक्षा देने वाली , प्रथम गुरु माता उपेक्षित हो रही है | कुछ लोगों का यह मत होता है कि अमुक व्यक्ति तो मेरा गुरु बनने के योग्य ही नहीं था विवशता में मैं उसके साथ रहा | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ऐसे मूर्ख विद्वानों को यह बताना चाहूंगा कि वह विवशता गुरु ने नहीं प्रकट की थी बल्कि तत्समय उसकी आवश्यकता थी | जो लोग ऐसा कह रहे हैं उनको इतिहास पढ़ने की आवश्यकता है | दत्तात्रेय जी ने अपने जीवन में जहां से भी कुछ शिक्षा प्राप्त की उसे गुरु बना लिया | परंतु आज समाज में देखा जा रहा है कि किसी गुरु को छोड़कर दूसरे गुरु की शरण में जाने से पहले मनुष्य अपने पहले गुरु की निंदा एवं बुराई समाज में करने लगता है | शायद विद्वानों को यह नहीं पता है गुरु से द्रोह करने वालों को स्वयं भगवान शिव भी नहीं बचा सकते हैं | मनुष्य विद्वान तो हो गया है परंतु उससे इतना ज्ञान नहीं है कि वह जो कर रहा है उसका परिणाम क्या होगा ? अपनी पत्नी के कहने - बरगलाने पर अपनी प्रथम गुरु का अपमान करना एवं उसे तिरस्कृत कर देना तथा समाज में किसी सद्गुरु के पास रहकर शिक्षा ग्रहण करने के बाद उसकी ही निंदा एवं बुराई करने लगना मनुष्य की अपसंस्कृति एवं छुद्र मानसिकता का ज्वलंत उदाहरण है | ऐसे मनुष्य इसका परिणाम भी भोंगते हैं परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | गुरु शब्द ही दयालुता का प्रतीक है चाहे वह माता हो या सद्गुरु कभी अपने संतानों को श्राप तो नहीं दे सकता परंतु उनके हृदय से उनके लिए आशीर्वाद भी नहीं निकल सकता |*
*गुरु चाहे छोटा हो या बड़ा गुरु गुरु होता है , जीवन भर की पूंजी अर्पित कर देने के बाद भी गुरु के ऋण से कोई भी उऋण नहीं हो सकता तो ऐसे में मनुष्य को यह विचार सदैव करना चाहिए कि यदि हमारे द्वारा उनका सम्मान ना हो पाए तो अपमान भी नहीं होना चाहिए अन्यथा परिणाम घातक हो सकता है |*