*सनातन धर्म के सद्ग्रन्थों एवं ऋषि - महर्षियों के विचारों में एक तथ्य एवं दिशा निर्देश प्रमुखता से प्राप्त होता रहा है कि मनुष्य जीवन पाकर के सबसे पहले मनुष्य को स्वयं के विषय में जानने का प्रयास करना चाहिए | क्योंकि जब तक मनुष्य स्वयं को नहीं जान पाएगा तब तक वह ब्रह्मांड को जानने का कितना भी प्रयास कर ले उसे सफलता नहीं मिल सकती | प्राचीन काल से हमारी मान्यता रही है कि हमारे शरीर की रचना तथा ब्रह्मांड की रचना समान रूप से की गई है | इसी तथ्य को सिद्ध करते हुए विनय पत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :---- "वपुष ब्रह्मांड सुप्रवृत्ति लंका दुर्ग , रचित मय दनुज मय रूप धारी " इन शब्दों में उन्होंने शरीर की तुलना ब्रह्मांड से की है | इसका सीधा का अभिप्राय है कि जो ब्रह्मांड में बाहर है वही व्यक्ति के भीतर शरीर में भी है | स्वर्ग - नरक , लोक - परलोक , ग्रह - नक्षत्र यह जितने भी ब्रह्मांड में व्यक्ति को बाहर दिखाई देते हैं उन्हीं का लघु प्रतिरूप मनुष्य का शरीर भी है | यदि व्यक्ति ध्यान से शरीर की ओर देखे तो उसे ब्रह्मांड का ही प्रतिरूप दिखाई पड़ेगा | जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में मनुष्य को संसार तथा संसार की वस्तुएं दिखाई देती है उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में भी सूर्य है और वह सूर्य है मनुष्य के नेत्र | जो भूमिका सूर्य की ब्रह्मांड में है वही भूमिका नेत्रों की मनुष्य के शरीर में है | सूर्यास्त के बाद जिस प्रकार कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है उसी प्रकार शरीर रूपी सूर्य अर्थात नेत्रों के बंद हो जाने पर भी अंधकार हो जाता है | इससे यह सिद्ध हो जाता है कि ब्रह्मांड एवं शरीर की रचना समान रूप से ब्रह्मा जी ने की है आवश्यकता है इसे समझने की एवं इसके विषय में जिज्ञासु बनने की |*
*आज वैज्ञानिक युग में हम जीवन यापन कर रहे हैं | नित्य प्रति नए-नए चमत्कार देखने को मिल रहे हैं जिससे कि मानव हृदय में सहज जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है | संसार के विषय में जानने के लिए आज मनुष्य प्रतिपल जिज्ञासु बना रहता है परंतु ब्रह्मांड के जटिल रहस्यों को खोजने के लिए प्रत्येक मनुष्य न तो उद्योग हीं कर पाता है और न ही उतना साधन जुटा पाता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि भले ही प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्मांड के रहस्यों को जानने में सफल ना हो परंतु यदि प्रयास करें तो वह अपने शरीर के विषय में अवश्य जान सकता है | परंतु यह दुर्भाग्य है कि आज की शिक्षा एवं भौतिकता ने मनुष्य के अंतर्चक्षुओं को बंद कर दिया है , जिसके कारण मनुष्य वाह्य पदार्थों के विषय में तो प्रतिदिन जानता रहता है परंतु अपने एवं अपने शरीर के विषय में ना तो जानने का प्रयास करता है और ना ही जान पाता है | प्रत्येक मनुष्य को सर्वप्रथम अपने शरीर के विषय में ध्यान देकर अपने अंगों की तुलना ब्रह्मांड में उपस्थित अवयवों से करनी चाहिए | ऐसा करने पर मनुष्य को एक नवीन ज्ञान प्राप्त होगा | यही हमारे पूर्वजों ने किया है और यही कारण था कि हमारे देश को विश्व गुरु कहा जाता था , परंतु आज हम अपने इतिहास को भूल कर के दूसरों की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहे हैं तो इसमें कमी हमारी ही है क्योंकि हमने अपने पूर्वजों से प्राप्त हुए उदाहरणों पर ध्यान देना बंद कर दिया है |*
*हमारा सनातन ज्ञान विज्ञान आधुनिक विज्ञान से कहीं आगे था और आज भी है आवश्यकता है उसे जानने एवं समझने की जो कि हम नहीं कर पा रहे हैं |*