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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *भाग - चतुर्थ* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*तृतीय भाग* तक आपने पढ़ा :---
*"श्री गुरु चरण"* की व्याख्या ! अब आगे :-----
*"सरोज रज"*
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पूज्य् भाव में चरण को कमल की उपमा देना उत्तम व प्राचीन परम्परा है | *"चरण सरोज"* अर्थात चरण कमल | कमल कोमल होता है | चरणों की कोंलता एवं सुन्दरता का वर्णन गोस्वामी जी ने किया है | *कमल* के मध्य में उसका पराग या केसर होती है इसी प्रकार *कमल* के मध्य *कमला* का निवास है | *श्री* के प्रसंग में *सरोज* कहा गया है क्योंकि *सरोज रज* पर कमल के दल रहते हैं | इसी प्रकार *श्री कमला* के *गुरु* विष्णु भगवान के चरण भी *कमल* दल *सरोज* होने से *सरोज रज वत्* हैं | कमला *चरण सरोज* में निवास करती हैं अथवा कमला निरन्तर *सरोज रज* को धारण किये रहती हैं अत: *"श्री गुरु चरण सरोज रज"* ही सरोज रज (कमल रज) है | नररूप *गुरु* के अर्थ में गुरु महाराज के *चरण सरोज वत्* निर्लिप्त असंग हैं | अर्थात कमल जैसे जल में ही उत्पन्न होकर उसी में रहते हुए भी जल से निर्लिप्त है उसी प्रकार *गुरु चरण* संसार में ही उत्पन्न होकर उसी में विचरण करके भी संसार से निर्लिप्त असंग हैं | जिस प्रकार *सरोज रज* की सुगन्ध चतुर्दिक फैलती है उसी प्रकार *गुरु चरण* से अर्थात :- गुरु जिस मार्ग पर चल रहे हैं उससे यश फैल रहा है |
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*"निज मन मुकुर"*
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निज अर्थात अपना ! भगवान की लीला स्वरूप के दर्शन *मन* ही के द्वारा किया जा सकता है | दूसरे के *मन* की स्वच्छता से स्वयं को क्या मिलेगा ? अपना कल्याण करने के लिए अपना *मन* ही स्वच्छ करने की आवश्यकता है | स्वच्छ *मन* में ही विम्ब स्पष्ट दिखाई पड़ेगा अन्यथा *दर्पण* का दाग विम्ब पर होने का भ्रम हो सकता है | अतः सत्य , स्पष्ट विम्ब के लिए *दर्पण* का स्वच्छ होना जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार *निर्मल मन* ही केवल भगवद् लीला स्वरूप का आनंद ले सकता है | क्योंकि भगवान ने स्वयं कहा है :---
*निर्मल मन जन सो मोहि पावा !*
*मोहि कपट छल छिद्र न भावा !!*
*मन* का स्वच्छ होना प्रथम शर्त है | यह तो व्यवहारिक अनुभव ही हो कि एक ही वस्तु को सामने रखें विभिन्न *दर्पणों* में देखिए तो वही विम्ब स्पष्ट होगा जो *निर्मल दर्पण* पर पड़ता है | देखना मुझे है तो *मन* मेरा ही संस्कृत किया जाना है | अन्य का *मन* स्वच्छ होने पर मुझे दर्शन नहीं होंगे | अतः गोस्वामी बाबा *निज मन* लिखा है |
*मन* को मुकुर अर्थात *दर्पण* की उपमा दी है क्योंकि जिस प्रकार दर्पण सामने की वस्तु का विम्ब ग्रहण करता है उसी प्रकार *मन* भी अपने सम्मुख पदार्थ का स्वरूप बुद्धि के सामने प्रकट करता है | जिस प्रकार *दर्पण* की दिशा भिन्न होने पर पृष्ठ की वस्तु का विम्ब उस *दर्पण* पर नहीं आता उसी प्रकार *मन* जिस ओर उन्मुख होगा इंद्रियां भी उसी पदार्थ का अनुभव करेंगी | *स्वच्छ मुकुर* जैसे स्पष्ट विम्ब के लिए सक्षम होगा उसी प्रकार स्वच्छ *मन* भी किसी वस्तु को स्पष्ट व सही सही प्रकाशित कर पाएगा | *दर्पण* जिस प्रकार प्रकाश किरणों को प्रतिबिंबित कर अन्य वस्तुओं को यथाशक्ति आलोकित करता है उसी प्रकार *निर्मल मन* भी अपने पर्यावरण में अपने प्रकाश को विकीर्ण करता है |
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*"सुधारि"*
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यदि मन निर्मल हो गया है तो भी उसे बारंबार स्वच्छ करने की आवश्यकता होती है क्योंकि जो वस्तु जितनी सात्त्विक होगी उस् उतने ही अधिक बार बार साफ करने की आवश्यकता होगी :- यह प्राकृतिक नियम है | शीशे या जितनी बढ़िया दर्पण के धरातल वाली सामग्री होगी उस पर उतनी ही शीघ्र धूल छा जाएगी | खुरदरी व असंस्कृत धरातल पर धूल के सूक्ष्म कण मार्जन करने के बाद पूरे दिन भर भी नहीं दिखाई देंगे किंतु सनमाइका या शीशे की बनी मेज पर थोड़ी देर बाद ही भूल दिखाई पड़ने लगती है | यद्यपि स्वच्छ करने पर इसकी सुंदरता की तुलना उससे नहीं की जा सकती है | इस प्रकार सात्त्विक मन को बार-बार भगवद्स्मरण से मार्जन करने की आवश्यकता होती है | अत: बार बार *सुधारने* की , स्वच्छ करने की बात कही गई है | *"सुधारि"* का एक अर्थ *सु+धारि* अर्थात् भली प्रकार से धारण करना भी होता है | यहां मन को दर्पण की उपमा देकर तुलसीदास जी ने बताया है कि दर्पण को हाथ में ग्रहण करते समय सावधानी की आवश्यकता होती है क्योंकि किंचित भी असावधानी से गिरकर वह टूट सकता है | दर्पण (शीशा) चिकना होता है अतः फिसलता भी जल्दी है इसलिए उसको मजबूती से पकड़ने की आवश्यकता है | उसी प्रकार मन की स्थिति है यह मन इतना चंचल होता है कि कितनी जल्दी अनायास ही फिसल जाता है यह बताने की आवश्यकता नहीं है | यदि मन भी हाथ से (पकड़ से) छूट़कर किसी रागात्मक विषय से जा टकराया पल्ले कुछ भी नहीं पड़ना है | इसलिए *"मन मुकुर सुधारि"* बाबा जी ने लिखा है | इस तरह *"सुधारि"* का अर्थ है सम्यक प्रकार से धारण करना जिसमें स्वच्छता , स्थिरता एवं अभीष्टोन्मु्खता सभी सम्मिलित है |
विचार कीजिए कि यदि हाथ में कोई चिकनाई लगी हो तो शीशा नहीं पकड़ सकते क्योंकि वह फिसल जाएगा ऐसी स्थिति में शीशापकड़ने के लिए हाथ में धूल लगानी पड़ेगी | उसी प्रकार मन की भी विषयों में भी रागात्मक चिकनाई होने के कारण फिसलने की अत्यंत संभावना होती है इसलिए *"श्री गुरु चरण सरोज रज"* अर्थात गुरु चरणों की रज (धूल) को हाथ में लगाकर तब *"निज मन मुकुर सुधारि"* अर्थात गुरु चरणों की धूल से ही इस मन को पकड़ा जा सकता है | तभी यह मन निर्मल हो सकता है |
*शेष अगले भाग में :-----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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