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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *चौवालीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*तिरालीसवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*आपन तेज सम्हारो आपै !*
*तीनोंं लोक हांक ते काँपै !!*
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अब आगे :----
*भूत पिशाच निकट नहीं आवे !*
*महावीर जब नाम सुनावे !!*
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*भूत :--* शब्द के कई अर्थ बताए गए हैं जैसे :- जीव , अंधेरों पक्ष , गतकाल , एवं देव सर्ग की एक योनि आदि | यद्यपि प्राणी मात्र को भी *भूत* कहते हैं व *पंचमहाभूतों* से जड़ तत्वों ( आकाश वायु अग्नि जल एवं पृथ्वी) का भी उदाहरण दिया जाता है किंतु इस प्रसंग में वे *भूत* ग्रहण किए जा रहे हैं जिनका देहावसान हो चुका है व सद्गति न प्राप्त होने के कारण वायुमंडल में भटकते रहते हैं | मनुष्य आदि प्राणियों के लिए इनका दर्शन ही भय प्रद होता है | आत्मघाती आज मनुष्यों की जीवात्मायें जब अतृप्त होकर के अनायास दिखाई पड़ जाती हैं या अप्राकृतिक क्रियाओं के द्वारा इनका आभास या भ्रम भी हो जाता है तो मनुष्य भयभीत होकर क्रियाकलाप करने लगता है तथा उसका मनोबल भी गिर जाता है | अपना योनिगत स्वभाव भी दुष्ट होने से यह योनियां भयप्रद होती हैं | कुछ पदार्थों का अपना प्राकृतिक प्रभाव ही मन पर आघात करने वाला या भयद होता है उन्हीं में से एक भय भी है | यथा :- सर्प भय | ज्ञान बल एवं आध्यात्मिक शक्ति से ही यह भय निवृत्त हो सकते हैं |
*पिशाच :--* भूत वर्ग का ही प्राणी होता है किंतु कच्चा मांस खाने वाला होता है | सामान्य *भूत* से प्रभाव में *पिशाच* अधिक बली वध दुष्ट होता है | तंत्र आदि की क्रियाओं से इनकी चिकित्सा प्रचलित है | यह विषय यद्यपि इतना गंभीर हैं कि इसकी व्याख्या के लिए अलग से विस्तृत मंच की आवश्यकता है , किंतु यहां प्रसंग वश संक्षिप्त में यह समझ लेना आवश्यक है कि :- अपवित्र कर्म से देहावसानोपरांत जीव की दिव्य गति (कल्याण :- अन्य देहज योनि की प्राप्ति) नहीं होती उस भ्रमित आत्मा की दिव्य योनियों (जो सामान्यत: नेत्रादि का विषय नहीं होते ) को ही *भूत पिशाच* आदि के नाम से जाना जाता है | *हनुमान जी* इतने पवित्र व ज्ञान मूर्ति हैं कि इनके नाम स्मरण मात्र से ही ये *भूतादि* निकट नहीं आते | भले ही यह मनोवैज्ञानिक विषयों हो परंतु इसमें संदेह नहीं है कि कितने ही मनुष्य भूत पिशाच आदि से भयभीत होने के बाद *हनुमान जी* के नाम रूप का स्मरण करके इससे मुक्त हो जाते हैं | *पिशाच* जिसे पकड़ लेता है आसानी से नहीं छोड़ता है | *श्री रामचरितमानस* में मोह को *पिशाच* की उपमा दी गई है | *ग्रसे जे मोह पिशाच* इसी प्रकार का यहां एक भाव यह भी है कि हम भी अपने *भूत* (प्रारब्ध कर्म :- जन्म जन्मांतरों के संस्कार , स्वभाव अभ्यास आदि ) से घिरे रहते हैं | *मोह पिशाच* की भांति यह *भूत पिशाच* भी कम नहीं है | शुभ साधना में यह भी जितना भयंकर बाधक है , *पिशाच* से कम नहीं है | *पिशाच* की छाया ही मनुष्य को घेर लेती है | छाया निकट आने पर पड़ती है गोस्वामी जी कहते हैं *महावीर* का नाम सुना देने पर *भूत पिशाच* निकट ही नहीं आते | *हनुमान जी* साधु संत (साधक) के रखवारे हैं | उनकी साधना में बाधक प्रारब्ध जन्म परिस्थितियां बाधक नहीं होती यह *हनुमान जी* के नाम का ऐश्वर्य है |
*मनोजवं* होने से स्मरण मात्र से भक्त हित करने के लिए *हनुमान जी* तुरंत भक्तों की रक्षा के लिए पहुंच जाते हैं व परम प्रकाशमय आध्यात्मिक शक्ति के सामने *तमोमय भूतों* का निकट आना असंभव हो जाता है | प्रकाश के निकट अंधकार आने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है तो *महावीर* जी के निकट इन दुष्टों की कल्पना करना महज मूर्खता ही है | यह विषय तो संभवत मनीषी पाठकों के लिए कठिन नहीं होगा कि नाम में नामी का सूक्ष्म प्रभाव व प्रकाश रहता है | *हनुमान जी* का *महावीर* नाम लेते ही इस नामी व उसके प्रभाव को जापक से अधिक दुष्ट जानते हैं अतः डरते हुए निकट नहीं आते हैं | इसीलिए *तुलसीदास जी महाराज* ने स्पष्ट लिख दिया है :--
*महावीर जब नाम सुनावे !*
*भूत पिशाच निकट नहीं आवे !*
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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