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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *चौदहवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*तेरहवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*जय हनुमान*
अब आगे:---
*ज्ञान गुन सागर*
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*ज्ञान गुण सागर* अर्थात ज्ञान और गुणों के समुद्र | समुद्र में जैसे जल की थाह नहीं है उसी प्रकार *हनुमान जी* के ज्ञान एवं गुणों की थाह नहीं है | *ज्ञान सागर* कहकर *हनुमान* नाम को सार्थक करते हुए गोस्वामी जी ने अपने मानस में भी *ज्ञानिनामग्रगण्यम्* कहा है | *श्री हनुमान जी* भक्ति में व राम सेवकों में प्रसिद्ध है | कोई यह न समझें कि वे केवल बली एवं राम भक्त परायण है अतः तुलसीदास जी ने उन्हें सर्वप्रथम *ज्ञान सागर* कहा है | जिस प्रकार *हनुमान जी* महाराज *ज्ञान के सागर* है उसी प्रकार *गुणों के भी सागर* हैं | सागर शब्द *ज्ञान व गुण* दोनों के साथ है | *ज्ञान एवं गुण* दोनों भिन्न बाते हैं अतः दोनों को एक साथ कहा गया | *हनुमान जी* साधु हैं | साधु के गुणों को पार पाना कठिन है | अपार समुद्र गुणों का साधु ही होता है | जैसे स्वयं मानस में बाबा जी ने लिखा :---
*खल अघ अगुन साधु गुन गाहा !*
*उभय अपार उदधि अवगाहा !!*
*हनुमान जी* ज्ञान एवं गुणों के सागर में क्यों ना हों ? क्योंकि उनके रोम रोम में भगवान सीताराम जी निवास करते हैं | समुद्र तो उनके *ज्ञान गुण* की राशि में उपमा के योग्य भी नहीं है किंतु ऐसा कह कर अपने *ज्ञान* की संकुचितता प्रकट की जाती है क्योंकि विचार कीजिएगा *सीताराम जी* को छोड़कर क्या *ज्ञान एवं गुण* कहीं अन्यत्र रह सकते हैं | रामजी क्या है ??? *ज्ञान अखण्ड एक सीतावर* इस प्रकार *ज्ञान* यदि स्वयं *भगवान राम* है तो गुण की खान *जानकी जी* हैं | यथा :-- *हा गुन खानि जानकी सीता* सृष्टि मात्र गुणों का ही खेल है , या त्रिगुणात्मक प्रपंच ही सृष्टि का स्वरूप है | तो वह केवल *सीताजी* का भ्रू विलास मात्र ही तो है | जैसा कि बाबा जी ने मानस में बताया है :--
*भृकुटि विलास जासु जग होई !*
*राम वाम दिसि सीता सोई !!*
ऐसे *सीताराम जी* जिसके रोम रोम में निवास करते हों क्या वह *ज्ञान व गुणों का समुद्र* नहीं हो सकता ? यदि समुद्र ही है तो ऐसे समुद्रों की संख्या नहीं है | *गुण सागर* अर्थात एक - एक गुण का सागर है ! गुणों का अंत नहीं तो सागरों का भी अंत नहीं है |
*जय हनुमान ज्ञान* अर्थात *हनुमान जी* ही गुण हैं | *रामजी* केवल *ज्ञान* हैं तथा *सीता जी* केवल *गुणों की खानि* हैं परंतु *हनुमान जी* में दोनों एक साथ रहते हैं अत* *हनुमान जी* महाराज *ज्ञान एवं गुण* दोनों का स्वरुप हैं |
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*सागर*
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*सागर* का अर्थ केवल समुद्र से नहीं निकालना चाहिए , वह तो उनके लिए है जो समुद्र को ही अथाह या विशालतम मानते हैं , या फिर *हनुमान जी* को वास्तव में ना जानकर केवल इतना ही समझते हैं | वास्तव में *सागर* का यह अर्थ है :- *भगवान शंकर का अंश* कुछ लोग कह सकते हैं कि *सागर* का अर्थ *भगवान शंकर का अंश* कैसे हो सकता है ?? ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि:--
*गर = विष*
*स+गर = विष सहित* अर्थात *भगवान शंकर* क्योंकि *भगवान शंकर* ने अपनी गले में कालकूट हलाहल विष को धारण कर रखा है जिससे उनका कण्ठ भी *नीलाभ* कहा गया है | इस प्रकार *सगर* अर्थात *भगवान शंकर* व उनका *अंश* |
*गुण* कर्तव्य एवं व्यवहार के दृष्टिकोण से दैवीसंपद् विशेषताओं को भी कहा जाता है | इस दृष्टिकोण से आसुरी वृत्तियों को *दोष* व दैविक वृत्तियों को *गुण* कहा जाता है , किंतु यहां यह ध्यान देने योग्य है कि कभी-कभी देवताओं में भी दूषित प्रवृत्तियों को किन्हीं विशेष कारणों से देखा जाता है पर इससे वह वृत्ति भी *गुण* नहीं हो जाती है अतः इसमें भी अंतिम निर्णय *वेद शास्त्रों* का ही होता है | *वेद एवं शास्त्र* जिसे *गुण* कहें वह *गुण* एवं जिसे *दोष* कहे वह *दोष* है | यथा :--
*भलेउ पोच सब विधि उपजाये !*
*गनि गुन दोष वेद विलगाये !!*
इस संदर्भ में भी *हनुमान जी* के *गुणो*ं के लिए सागर *(गुण सागर)* है , अर्थात *गुण* धारणीय मोती है तो मोती जिस *सागर* से निकलते हैं उन *गुण मुक्ता* का आकार *सागर* हनुमान जी ही हैं | कहने का अभिप्राय है कि *हनुमानजी* के चरित्र आदर्श हैं | अत: *धारणीय गुणों की प्राप्ति* यहां से होती है |
*शेष अगले भाग में :-----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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