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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *उन्तीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*अट्ठाइसवें भाग* में आपने पढ़ा :
*राम काज करिबे को आतुर*
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अब आगे :------
*प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया*
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*तुलसीदास जी* ने हनुमान चालीसा लिखते समय *राम काज करिबे को आतुर* लिखने के तुरंत बाद लिख दिया *प्रभु चरित्र* इसके गूढ़ार्थ को समझने की आवश्यकता है | *तुलसीदास जी* बताना चाहते हैं कि रामजी का कोई कार्य कर्तव्य है ही नहीं वरन् वह तो केवल *प्रभु चरित्र* है , भगवान का अभिनय है | वे अपना काम सेवक *हनुमान जी* से बनवाते हैं , ऐसा अभिनय करते हैं कि ऐसा प्रतीत होने लगता है कि यदि *हनुमान जी* उस समय न रहे होते तो रामजी का यह कार्य कौन व कैसे कैसे करता ? अतः *राम काज* को *प्रभु चरित्र* कहा गया है | ऐसा भी कहा जा सकता है कि *राम काज करिब् को आतुर ही प्रभु चरित्र है* |
कुछ विद्वान यहां पर प्रश्न करते हैं तथा *हनुमान जी* पर आरोप भी लगा सकते हैं कि जब *हनुमान जी* जानते हैं कि राम काज राम काज नहीं बल्कि एक नाटक है व इसमें केवल *हनुमान जी* का ही नाम होता है तो ऐसे चरित्र में *हनुमान जी* को रस आना क्या यश: इच्छा को प्रकट नहीं करता ? व इससे *हनुमान जी* के अहं गलितत्व की महानता में न्यूनता नहीं प्रकट होती ?
*इस विषय पर विचार करने की आवश्यकता है*
यहां *तुलसीदास जी* ने *रामचरित्र* नहीं लिखा है बल्कि उन्होंने लिख दिया है *प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया* जिसका अर्थ है कि *हनुमान जी* को सिर्फ श्री राम जी के चरित्रों में ही नहीं बल्कि प्रभु के जितने चरित्र है सबके ही काम करने में आनंद आता है | क्योंकि | *हरि अनंत हरि कथा अनंता* एक बात और ध्यान देने योग्य है कि सेवकों को बड़ाई देने में *हनुमान जी* के अतिरिक्त सुग्रीव , अंगद , विभीषण , जामवंत , केवट आदि कितने ही सेवक है फिर सभी के साथ *हनुमान जी* का भी नाम आए तो इसमें विशिष्ट अहं का कहीं भाव ही नहीं रह जाता है | धार्मिक मर्यादा की रक्षा के लिए शाप वश *हनुमान जी* को अपने स्वरूप या पौरुष जागृति के लिए व रामजी की सेवा के लिए भी आवश्यक है | ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि किसी भी पदार्थ की प्राप्ति उसकी इच्छा का द्योतक नहीं अनाशक्ति की सिद्धि वा भाग्य का सूचक ही होता है | *हनुमान जी* का यश *हनुमान जी* के यशेच्छा को सूचित नहीं करता बल्कि पुण्य कर्म की लीला का आदर्श प्रमाण है | सभी धनी व्यक्ति धन के प्रति आसक्त होते हैं वह दीन हीन धन के प्रति आसक्त ना होता हो ऐसा नहीं होता , बल्कि धन के प्रति आसक्ति किसी की भी हो सकती है या यूं कहिए कि सब की ही होती है | उसी प्रकार यश की इच्छा किसे नहीं होती परंतु यश मिलता किसे है ? यश अपनी इच्छा से नहीं बल्कि इसका सिद्धांत ही अलग है ! बाबा जी ने मानस में लिखा है :--
*हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ*
*इस प्रकार विद्वानों का प्रश्न एवं आरोप निराधार सिद्ध होता है |*
*प्रभु चरित्र* कहकर तुलसीदास जी ने स्पष्ट किया है कि *हनुमान जी* भगवान के सभी विग्रहों के प्रति पूर्ण भक्त हैं | भगवान के चार स्वरूप (भक्तों के लिए) माने जाते हैं *नाम रूप लीला व धाम* नाम का जप , रूप माधुरी के दर्शन , ध्यान , लीला का श्रवण , धाम में निवास ही चारों स्वरूपों का आनंद लेना है , और *हनुमान जी* चारों ही रूपों का आनंद लेते हैं | जिनमें से *लीलामृत के रसिक* होने की बात *प्रभु चरित्र सुनिबे की रसिया* कह कर बताने का प्रयास *तलसीदास जी* ने किया है | *हनुमान जी* को भक्तों में आदर्श बताया है | भक्त को चाहिए कि भगवान की लीला का श्रवण करते रहे जिसमें माया से मोहित ना होने की संभावना न हो | परंतु आज कलियुग में लोग दुर्लभ देह को ही श्रेष्ठ समझते हैं *लीला व नाम* में मन नहीं लगाते | भक्तों को बताना चाहूँगा कि उनके लिए यही मार्गदर्शन है कि जिन्हें *धाम व रूप* सुलभ है वे भी *लीला स्वरूप* या *भगवन्नाम* को न्यून नहीं जानते | यही भक्त का लक्षण है ! क्योंकि जिसका मन सत्संग एवं प्रभु के चरित्रों से भर जाता है समझ लो उसने कुछ भी नहीं जाना जैसा कि बाबा जी ने बताया है
*राम चरित जे सूनत अघाहीं !*
*रस विशेश तिन्ह जाना नाहीं !!*
इस प्रकार *हनुमान जी*
*प्रभु चरित्र के रसिया* अर्थात रस विज्ञ हैं |
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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