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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *इकतीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*तीसवें भाग* में आपने पढ़ा :
*राम लखन सीता मन बसिया*
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अब आगे :-----
*सूक्ष्म रूप धरि सियहि देखावा*
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*हनुमान जी* सीता जी को *सूक्ष्म रूप* धारण करके मिले | उन्होंने सीता जी को मिलने के पहले ही *सूक्ष्म रूप* धारण कर लिया था | *सूक्ष्म रूप* धारण करने का गूढ़ अर्थ यह है कि अशोक वाटिका में माता के सामने छोटा बालक बनकर जाना ही उचित था जिस प्रकार जन्म लेते हुए बच्चे का होता है | इसीलिए *हनुमान जी* ने *सूक्ष्म रूप* धारण किया | *हनुमान जी* ने *सूक्ष्म रुप* धारण करके स्पष्ट कर दिया है कि वह जो चाहे वह रूप धारण कर लेते हैं , उनका स्वयं का कोई रूप नहीं है , क्योंकि भगवान स्वयं निराकार हैं उनका स्वरूप भक्तों की इच्छा पर निर्भर है | इस प्रकार *हनुमान जी* स्वयं ऐश्वर्य युक्त थे | *हनुमान जी* सिद्ध योगी हैं अतः जो चाहे स्वरूप धारण कर सकते हैं | योग की आठ सिद्धियां प्रमुख रूप से मानी गई है जिनमें से चार दैहिक एवं चार मानसिक या अंतःकरण संबंधी होती हैं | अणिमा , गरिमा , महिमा व लघिमा पूर्व की (दैहिक) तथा प्रसिद्धि , प्राकाम्य , ईशित्व तथा वशित्व मानसिक सिद्धियां कहलाती हैं | *सूक्ष्म रुप* धारण करना योग सिद्धि हैं | अशोक वाटिका में पहुंचते समय इतना *सूक्ष्म रूप* धारण किया कि वृक्ष के पत्तों की ओट में छुपे रहे | *तरु पल्लव महुं रहा लुकाई* इतना ही नहीं जब सीता जी को इस *सूक्ष्म रूप* से ही आश्चर्यजनक आश्वासन दिया व वह भी आत्मविश्वास के अधिकार पूर्वक तो जानकी जी चकित हो गई कि यह छोटा सा बालक क्या कह रहा है | मुट्ठी भर देह नहीं और कहता है कि :-
*अबहिं मातु मैं जाऊँ लेवाई !*
*प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई !!*
तब सीता ने कहा :---
*हैं सुत सुत कपि सब तुमहिं समाना !*
*जातुधान अति भट बलवाना !!*
*मोरे हृदयँ परम संदेहा !*
जब सीता जी को संदेह हो गया तब *हनुमान जी* ने प्रमाण देने के लिए तुरंत ही अपना वास्तविक रूप दिखा दिया , जिससे सीता जी के मन का संदेह समाप्त हो गया :-- *सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा* इस प्रकार *हनुमान जी* सिद्ध योगी थे जब चाहे जैसा स्वरूप चाहे धारण कर सकते थे |
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*विकट रुप धरि लंक जरावा*
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*विकट* का भावार्थ है भयंकर अथवा विकराल , जिसका तात्पर्य है कि विकराल रूप धारण करके लंका को जलाया | जब जैसा कर्म करना है वैसा स्वरूप धारण करना सामान्य बात है | लंका को जलाना भयंकर कर्म है अतः रूप भी *विकट* धारण करना पड़ा |
*लंका को क्यों जलाया ? यह प्रश्न मन में हो सकता है !*
यहां तो सामान्य सा भाव यह निकलता है कि *हनुमानजी* ने *विकट रूप* धारण करके लंका को जलाया ! परंतु इसके *गूढ़ अर्थ* को देखा जाएगा तो विचार करने की बात है कि :-- *विकट रुप धरि लंक* अर्थात लंका ने अपने स्वरुप को दुश्चरित्रों से *विकटता* दे दी थी या लंका ने *विकट रूप* धारण कर लिया था इसलिए *जरावा* अर्थात जला दिया |
*विकट* का अर्थ कटा , फटा चिथड़ा होना या विशेष रूप से खंडित होकर दुर्घटनाग्रस्त भी होना होता है | लंका की ऐसी स्थित हो गई थी इसका शुद्ध संस्कार और कैसे होता ? इसलिए लंका को जला दिया | लंका स्वर्ण निर्मित कज्जल गिरिवत् निश्चरों के संसर्ग से धूमिल हो गई थी उसे पुन: उज्जवल करने हेतु *हनुमान जी* ने लंका को जला दिया | स्वर्ण के बने आभूषण भी जब काल कर्म की गति से *विकट* अर्थात कटे-फटे हो जाते हैं तो उनको जलाकर स्वर्ण को पुनः शुद्ध करना व्यवहारिक कर्म भी है इसलिए भी *हनुमान जी* ने लंका को जला दिया | *श्री हनुमान जी* जो कुछ करते हैं अपने इष्ट भगवान राम के अनुसार ही करते हैं और भगवान का अपना एक नियम है कि *ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्* अर्थात जो मुझसे जैसा व्यवहार करता है मैं भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करता हूं | इसी के अनुसार *हनुमानजी* भी वैसा ही बर्ताव करते हैं | शीतल के सामने शीतल और उग्र के सामने उग्र हो जाते है | इसलिए कहा कि सियहि ( शीतल के लिए) *सूक्ष्म रूप धरि* अर्थात सूक्ष्म रूप धारण किया तथा *बिकट रुप धरि* ( लंका ने *विकट* रूप धारण कर लिया था इसलिए उसको *विकट रूप* धारण करके जला दिया ) *श्री रामचरितमानस* में अशोक वाटिका में युद्ध के बाद रावण के इस प्रश्न का कि :- *"मारे निसिचर केहि अपराधा"* *हनुमान जी* ने सहज , सरल एवं सैद्धांतिक उत्तर देते हुए कहा कि हे रावण ! सभी प्राणधारियों को अपनी देह प्रिय होती है मुझे दुष्ट मारने लगे तो मैंने केवल उन्हीं को मारा जिसने मुझे मारा था | इससे यह सिद्ध हो जाता है कि *हनुमान जी* भगवान की *ये यथा मां प्रपद्यंते* के सिद्धांतों का पूर्णतय: पालन करते हैं |
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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