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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *बत्तीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*इकतीसवें भाग* में आपने पढ़ा :
*सूक्ष्म रूप धरि सियहि देखावा !*
*विकट रूप धरि लंक जरावा !!*
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अब आगे :-----
*भीम रूप धरि असुर संहारे !*
*रामचंद्र के काज संवारे !!*
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*भीम रूप धरि असुर संहारे*
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*भीम रूप* अर्थात भयंकर स्वरूप | भगवान की मर्यादा का पालन करते हुए *हनुमान जी* ने जहां जैसी आवश्यकता हुई वैसा स्वरूप धारण किया है | यद्यपि असुरों का स्वरूप भीमकाय होता था , विशाल होता था इसलिए उनका संहार करने के लिए *हनुमान जी* को भी विशालकाय या डरावना स्वरूप धारण करना पड़ा | जिस प्रकार राक्षसों के विशालकाय *भीम काय* शरीर को देखकर सामान्य व्यक्ति भयभीत हो जाता है उसी प्रकार *हनुमान जी* एवं उनकी विशालता को देखकर ये असुर दल भी भयभीत हो जाता था | इसीलिए *हनुमान जी* को *भीमकाय* स्वरूप धारण करना पड़ता था |
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*रामचंद्र के काज संवारे*
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*रामचंद्र के काज संवारे* रामचंद्र जी के कार्यों की सुरक्षा एवं उसमें सुधार किया अर्थात बिगड़े हुए कार्यों को ठीक कर दिया | इसके पहले की चौपाई में लिखा गया है *राम काज करिबे को आतुर* इसका अभिप्राय है कि राम जी के कार्य करने को उत्सुक रहते हैं | यहां राम जी के प्रति श्रद्धा व सेवा भाव तो प्रकट हुआ पर क्षमता नहीं | कार्य करने का मन करना एक बात है व कार्य को पूर्ण कर देना दूसरी बात | प्रथम में इच्छा भाव प्रकट होता है पर दूसरे में कार्य करने की क्षमता का होना आवश्यक है | कार्य के प्रति सेवा भाव (भक्ति) की उत्सुकता तो अन्य भक्तों की भी हो सकती है पर क्षमता इसके साथ होना अलग योग्यता है | दोनों के मिलने से ही कार्य होते हैं | विचार कीजिए इच्छा रहे पर क्षमता ना हो तथा क्षमता रहे पर वह कार्य करने की इच्छा ही ना हो तो दोनों स्थिति में कार्य नहीं हो सकता है | श्रद्धा क्षमता की प्रेरक होती है बिना प्रेरणा के क्षमता निष्क्रिय होती है तथा क्षमता का स्वरूप भी बिना क्रिया के स्पष्ट नहीं होता अतः पहले प्रेरक इच्छा को *करिबे को आतुर* कहकर तुलसीदास जी ने लिखा और अब लिख रहे हैं *काज संवारे* जिसका अर्थ है कि तुलसीदास जी *हनुमान जी* की क्षमता का भी स्पष्ट वर्णन कर रहे हैं | सीता जी की सुधि लेने के लिए करोड़ों बानर सभी दिशाओं में गए थे | *हनुमान जी* के साथ उसी दल में भी अंगद जामवंत जैसे वीर योद्धा साथ थे इनकी इच्छा भी *राम काज* में कम नहीं थी | पर जब पता लगा कि सीता जी लंका में है जहां पहुंचने के लिए सौ योजन का समुद्र बांधना पड़ेगा तो यहां क्षमता का प्रश्न था | इसलिए *हनुमान जी* ही एकमात्र थे जो सीता जी की सुधि लेकर आए |
*एक बात और विचारणीय है कि यहां पर तुलसीदास जी ने केवल राम न कहकर रामचन्द्र कहा है | इसका कोई विशेष कारण अवश्य होगा |*
*इन कारणों पर थोड़ा चिंतन कर लिया जाय*
धर्म की रक्षा का कार्य एक वैभव पूर्ण कार्य है | धर्म स्वयं सनातन है , स्वत: रक्षित है | *राम* शब्द ब्रह्म का वाचक भी है | राम शब्द में भगवान के विभिन्न स्वरूपों की व्याप्ति है यहां तक कि निर्गुण सगुण आदि भी भाव प्रकट होते हैं | इस व्यापक भाव में भक्ति का स्वरूप इच्छा मात्र ही होता है क्योंकि क्षमता तो केवल स्वयं भगवान की ही रहती है भक्तों की पहचान तो उसकी इच्छा व श्रद्धा पर ही निर्भर है फल या परिणाम पर पर नहीं | कार्य का होना ना होना भगवान पर निर्भर है भक्त अपनी श्रद्धा पूर्ण इच्छा भगवान के प्रति अर्पित करता है | परिणाम में वह भगवद्इच्छा को प्रधान मानकर मोहित नहीं होता | इसीलिए *भगवान कृष्ण ने अर्जुन से* कहा था :--
*कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन*
अर्थात हे अर्जुन ! तेरा अधिकार केवल कर्म से फल में कदाचित नहीं |
भगवान के रूप में *राम शब्द* के साथ केवल इच्छा के स्वरूप की उत्कृष्टता का ही वर्णन किया गया कि *राम काज करिबे को आतुर* इसलिए यहां *राम मात्र* शब्द दिया गया जिससे कि शब्द की व्याप्ति धर्म के समग्र रूप में रहे अवतार विशेष की लीला विशेष के स्वरूप में ना हो | *रामचंद्र के काज संवारे में* *रामचन्द्र* कहकर *राम शब्द* की व्याप्ति को लीला विशेष में समेट लिया |
*एक अन्य विचार*
लीला प्रधान अवतारों में *श्री राम के तीन स्वरुप* शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं | *परशुराम अवधेश राम एवं बलराम*
*राम शब्द* तो तीनों के लिए समान रूप से काम आ सकता है किंतु जहां *रामचन्द्र* कह दिया गया वह नाम केवल अयोध्या की महाराज राम *(अवधेश राम)* के लिए ही प्रयुक्त होता है | यहां जब काज सवारने की बात कही गई तो *हनुमान जी* का *अवधेश राम* की लीला विशेष प्रसंगों का ही संकेत किया गया है , क्योंकि *हनुमान जी* की सह लीला प्रसंग में *अवधेश राम* रूप में ही संगत रही है | यहां *रामचंद्र के काज संवारे* तुलसीदास जी ने लिख दिया ना कि *राम के काज संवारे*
*एक अन्य विचार*
*भगवान राम को *भानु कुल भानू* कहा गया है | उनके साथ *चन्द्र* शब्द भी सार्थक इसलिए है कि संपद विपद परक घटा बढ़ी की लीला *चन्द्र* में ही घटित होती है व तभी *काज संवारे* की उपयोगिता सिद्ध होती है | अतः यहाँ सिर्फ राम न कहकर *रामचंद्र* कहा गया | जिसके काम बिगड़ते बनते हो और जिसमें *हनुमान जी* की भांति अन्य व्यक्तित्व निमित्त बनते हो वही *रामचंद्र* नाम अन्य किसी अतिव्याप्ति या वैभव परक नाम की अपेक्षा उपयुक्त दिखाई देता है | इसलिए यहां पर विशेष रूप से तुलसीदास जी ने भगवान श्रीराम को *रामचंद्र* लिखा है
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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