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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *तिरालीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*बयालीसवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*सब सुख लहै तुम्हारी सरना !*
*तुम रक्षक काहू को डरना !!*
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अब आगे :---
*आपन तेज सम्हारो आपै !*
*तीनोंं लोक हांक ते काँपै !!*
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*तेज* शब्द का अर्थ प्रकाश , द्युति , चमक , ओज , पराक्रम , आध्यात्मिक शक्ति का प्रकाश , वे तेजस पदार्थ जो दीप्ति में परिवर्तित होकर लयलहो जाते हैं यथा ही तेल , घी आदि कहा गया है | संक्षेप में इन सब का अभिप्राय प्रकाश स्वरूप शक्ति या तत्संबंधित पदार्थों का अाशय रहता है | त्वचा का ओज भी उसी चमक व स्निग्धता का स्वरुप है | *श्री हनुमान जी* में सभी प्रकार के *तेज* अतिशय रूप में रहते हैं ऊर्ध्वरेता है अतः ओज , ब्रह्मचारी एवं पवन पुत्र हैं | साक्षात् अग्नि स्वरूप तथा अतुलित बल साक्षात शिव हैं अत: आध्यात्मिक शक्ति का प्रकाश इनमें निवास करता है | इनके *तेज* को अन्य कोई क्या सहन कर सकता है अतः अपने *तेज* को स्वयं ही संभाल सकते हैं | भास्कर को भी आप जब निगल सकते हैं जिसका *तेज* ही तीनों लोगों में अन्य कोई सहन नहीं कर सकता तो आपके *तेज* को कौन सहन कर सकता है ? अतः कहा गया *आपन तेज सम्हारो आपै* सर्वात्मा का स्वरूप होने के कारण अन्य कोई भी *हनुमान जी* के *तेज* को कैसे सहन कर सकता है ? *सम्हारो आपै* से अभिप्राय है कि आपने अपने आप इस प्रकाश *तेज* को संभाल रखा है अन्यथा यह विश्व सूर्य को भी निगल जाने वाले *तेज* को कैसे सहन कर सकता था ! *संभालने* का भाव है कि जहां तहां बिखेरते नहीं है , जब चाहे जहां चाहे जितना चाहे या उपयुक्त हो उतना ही प्रकाश करते हैं | सिर्फ अपने में समेटे रहते हैं | *श्री रामचरितमानस* के समुद्रोल्लंघन प्रसंग में कहां तो समुद्र को लांघ कर पार कर जाने की बात थी व कहां जामवंत के जगाते ही आपने पूछ लिया :-
*सहित सहाय रावनहिं मारी !*
*आनहुँ इहाँ त्रिकूट उपारी !*
अर्थात हे जामवंत जी ! क्या मैं त्रिकूट पर्वत उखाड़ कर के यहां ले आऊँ या रावण को उसके सहायकों सहित मार डालूँ ? यह *हनुमान जी* का कोई आवेश या आवेग नहीं था बल्कि सहज संयमित प्रश्न था कि *उचित सिखावन दीजहुँ मोही-* इसका अभिप्राय यह है कि अपने *तेज* (बल पराक्रम शक्ति) को आप ही संभालते हो अन्यथा थोड़ा सा बल ऐश्वर्य प्राप्त होते ही व्यक्ति मदमस्त होकर पागल हो जाता है | यथा :- *जस थोरेहुँ धन खल इतराई* रावण को थोड़ा सा बल मिला तो हालत यह हो गई कि :-
*रन मद मतित फिरहि जग धावा !*
*प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा !!*
परंतु अतुलित बल एवं *तेज* के धाम होने के बाद भी *हनुमान जी* ने अपने बल का मिथ्या प्रदर्शन न करके उसको संभाले रखा है | इसीलिए *तुलसीदास जी महाराज* ने *हनुमान जी* के बल पराक्रम को देखते हुए *आपन तेज सम्हारो आपै* लिखना ही उचित समझा |
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*तीनो लोक*
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*तीनो लोक* से अभिप्राय है स्वर्ग पृथ्वी एवं पाताल यद्यपि सात अधलोक एवं सात ऊर्ध्वलोक की गणना भी की गई है | सभी स्थितियों में भूलोक को मध्य में माना गया गणना में | गणना में ऊर्ध्वलोकों का प्रथम सोपान है | भू: भुव:स्व: आदि | *तीनों लोकों* की गणना जब की जाती है तो पृथ्वी आकाश पाताल अर्थात ऊपर नीचे व मध्य में सब का समाहार हो जाता है इसलिए *तीनो लोक* लिखा |
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*हांक ते काँपै*
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तीनों ही लोक आप की *हुंकार* से कांप पर जाते हैं , भयभीत होते हैं | *हुंकार* का क्या मतलब हुआ इस पर भी विचार कर लिया जाय | *हुंकार* मुंह बंद करके गले से जो ध्वनि नासिका रन्ध्र से वायु के नि:सारण से की जाती है उसे कहते हैं | इसमें आवाज प्राण वायु की दबी हुई होती है | गला व मुंह खोलकर ललकार की जाती है परंतु *हुंकार* बंद मुंह से की जाती है | जब *हुंकार* से तीनों लोक कांप जाते हैं तो ललकार को कौन सह सकता है | *हनुमान जी* की हुंकार शास्त्र प्रसिद्ध है | महाभारत के युद्ध में भी भीम की सहायता उसके साथ *हुंकार* करके की थी | जब भीम पर शत्रुओं का जमाव होता तो भीम *हनुमान जी* का स्मरण कर के युद्ध में शत्रुओं को ललकारते थे तो उसकी ध्वनि के साथ ही *हनुमान जी* थोड़ा *हुंकार* भर देते थे बस शत्रुओं के कलेजे थर्रा जाते थे एवं सभी भाग खड़े होते थे | *तीनों लोक* में कोई व्यक्ति या दल नहीं जो इनकी *हुंकार* से दहल न जाते हों | एक साथ *तीनों लोकों* को अपनी भयंकर *हुंकार* से कपा देने वाली शक्ति *हनुमान जी* के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता | इसीलिए *तुलसीदास जी महाराज* ने *तीनों लोक हांक ते कांपै* का भाव लिखा |
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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