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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *पचासवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*उनचासवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*चारों युग परताप तुम्हारा !*
*है पर सिद्ध जगत उजियारा !!*
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अब आगे :---
*साधु सन्त के तुम रखवारे !*
*असुर निकंदन राम दुलारे !!*
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*साधु सन्त के तुम रखवारे*
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*साधु संत* दोनों शब्दों को एक साथ देना भी एक अभिप्राय है क्योंकि *साधु* साधक को कहा जा सकता है परंतु *सन्त* सात्विक प्रवृति से संबंध रखता है | प्रायः लोक कल्याण के निमित्त दोनों का पर्याय समान भाव में प्रयोग किया जाता है परंतु गंभीरता से विचार करने पर *गोस्वामी तुलसीदास जी* ने कुछ अंतर रखकर वर्णन किया है | यथा:-
*साधु चरित शुभ चरित कपासू !*
*निरस विसद गुनमय फल जासू !!*
और दूसरी ओर *संत* के लिए लिखा है :--
*मुद मंगलमय संत समाजू !*
*जो जग जंगम तीरथ राजू !!*
अंतर की बात यह है कि *साधु* किसी का अहित तो नहीं करते पर हितकर दंड भी दुष्टों को देने में नहीं चूकते , जबकि *संत* हित कामना में भी दंड देने में प्रयुक्त नहीं होते | उदाहरण के लिए *हनुमान जी साधु* तो हैं पर दुष्ट दलन में संकोच नहीं करते | यथा :--
*कियेउ कुवेष साधु सनमानू !*
*जिमि जग जामवंत हनुमानू !!*
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*जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे*
अर्थात जो हमें मारेगा वह हमसे मार खाएगा हम खड़े होकर मार थोड़े ही खाएंगे ? कालनेमि धोखा देना चाहता है तो हनुमान जी कह देते हैं :---
*पहले मुनि गुरु दक्षिणा लेहूं !*
*पाछे हमहिं मंत्र तुम देहू !!*
और फिर *सिर लंगूर लपेटि पछारा* आदि |
परंतु *संतों* के लक्षण तो यह है कि दुष्ट कुठार की भांति *संत* चंदन को काट भी देता है तो संग की सुगंध तो अवश्य लग जाती है पर कुठार को दंड चंदन नहीं लोहार ही देता है | यथा:--
*संत असंतन्हिं कै असि करनी !*
*जिमि कुठार चंदन आचरनी !!*
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*काटइ परसु मलय सुनु भाई !*
*निजगुन देइ सुगन्ध बसाई !!*
*××××××××××××××××××*
*ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग वल्लभ श्रीखंड !*
*अनल दाह पीटत घनहिं परसु वदन यह दण्ड !!*
उपरोक्त प्रकार से *हनुमान जी* के साधु होने से संबोधन भी मानने का भाव हो सकता है कि हे *साधु हनुमान जी* ! आप *संतो के रखवारे* हो अथवा *साधु एवं संतों रखवारे हनुमान जी* ही हैं या फिर यह भी कहा जा सकता है कि *हनुमानजी* संत प्रवृत्ति के *साधुओं* के ही *रखवाले* हो | असुरों को तो नष्ट ही करने वाले हो कपटीवेशधारी साधु तो दंडनीय ही होता है |
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*असुर निकंदन*
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इसी *हनुमान चालीसा* में पहले *तुलसीदास जी महाराज* ने लिख दिया है *राम काज करने को आतुर* इस पर विचार कर लिया जाए कि *राम काज* है क्या ? इसका दर्शन भी हमें *मानस* में ही होता है | यथा :--
*असुर मारि थापहिं सुरन्ह , राखहिं जग श्रुति सेतु !*
*जग विस्तारहिं विसद जस , रामजनम कर हेतु !!*
यही *रामकाज* है और आप भी *असुर निकंदन* होकर राम काज करते हो | असुरों को नष्ट करने में हनुमान जी सिद्धहस्त हैं | प्रभु राम रुख ही ना हो तो भले ही युद्ध वा मल्ल लीला करते रहें | यथा :- *भिरे जुगल मानहुँ गजराजा* पर यदि खेलने की इच्छा और ना हो तो अक्षय अर्थात अ + क्षय को क्षय करने में क्षण नहीं लगता | भगवान राम का *असुर संहार* एवं *साधु संत* की रक्षा का कार्य केवल त्रेतायुग को लीला काल में ही मात्र थोड़े ही था | अतः लीला संवरण के समय यह कार्य *हनुमान जी* को सौंप गए कि मेरे भक्तों *(साधु संतों)* की रक्षा अब चिरंजीवी होकर तुम करना | अब यह कार्य *हनुमान जी* करते हैं इसलिए इन्हें *असुर निकंदन* कहा गया है |
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*राम दुलारे*
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*राम दुलारे* अर्थात *हनुमान जी* राम जी के परम प्रिय हैं | *दुलारे* शब्द यहां बड़ा ही मार्मिक है | जननी (माँ) का शिशु पर जो प्रेम होता है वह *दुलार* कहलाता है | यथा :-- *मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना* यहां *रामजी का दुलारा हनुमान जी को* कहा गया है | ध्यान दीजिए कितना वात्सल्य पूर्ण प्रेम का संबोधन है | यह सब राम जी के साथ संभवत: ही कहीं आया हो | एक विशेष बात यह है कि *असुर निकंदन* के तुरंत बाद यह शब्द कहा गया है जिससे यह भाव प्रकट होता है कि शिशु यदि पालने में हाथ पैर मारता है व उससे यदि किसी को लग भी जाय और उससे कोई (कीड़ा) मर भी जाय तो माँ शिशु को अपराधी मानकर कोई प्रतिक्रिया नहीं करती है , वह तो गोद में उठाकर *दुलार* ही करेगी | अतः यदि *साधु संत* की रक्षा में किसी *असुर का निकंदन* भी होता है तो भी आप तो *राम के दुलारे* ठहरे ! आपको तो प्यार भरा चुंबन एवं *दुलार* आदि ही मिलेगा | *श्रीरामचरितमानस* में यदि किसी से प्रेम हुआ है तो प्रिय मित्र आदि का भाव ही प्रदर्शन रामजी ने किया है चाहे *जोरी प्रीति दृढ़ाई* या फिर *कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा* आदि | सुग्रीव से मित्रता की हो चाहे विभीषण को भी प्राण प्रिय बनाकर :- *तुरत विभीषण पाछे मेला ! सन्मुख राम सहेउ सो सैला !!* यह सब भाव तो देखने को मिल सकता है परंतु *दुलार* का पात्र केवल *हनुमान जी* ही बन सके , जिसे माता (सीता) व पिता (राम) दोनों ने ही प्यार दिया | सीता जी ने प्रथम पुत्र कहकर संबोधन किया :- *सुनु सुत करहिं विपिन रखवारी ! परम सुभट रजनीचर भारी !!* वही मात्र सीता जी ने ही नहीं बल्कि भगवान श्रीराम ने भी *हनुमान जी* को पुत्र कह कर संबोधित किया :-- *सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं ! देखेउँ करि बिचार मन माहीं !!* इससे यह सिद्ध हो जाता है कि *हनुमान जी राम के दुलारे थे* क्योंकि राम जी ने अपना पुत्र किसी को भी नहीं कहा अब यदि *हनुमान जी* किसी पर प्रसन्न हो कृपा कर दें तो अपने *दुलारे* के प्रिय के साथ जो व्यवहार होता है वही तो रामजी वात्सल्य भाव में विवश होकर करेंगे ? यही भाव मन में रखते हुए *तुलसीदास जी महाराज* ने अपनी दिव्य लेखनी से लिख दिया *असुर निकंदन राम दुलारे* |
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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