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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *इक्यावनवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*पचासवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*साधु सन्त के तुम रखवारे !*
*असुर निकंदन राम दुलारे !!*
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अब आगे :------
*अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता !*
*अस बर दीन्ह जानकी माता !!*
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*अष्ट सिद्धि*
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यद्यपि *सिद्धि* का अर्थ है सफलता | किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति उसकी *सिद्धि* है | इस प्रकार *सिद्धियों* की संख्या अनंत होगी परंतु वर्गीकरण का आधार कोई न कोई दृष्टिकोण होता है | योग की *आठ सिद्धियां* प्रसिद्ध है शेष *सिद्धियां* इसी में समाहित हो जाने से उनकी अलग गिनती उनके विस्तृत प्रसंग में ही की जाती है | यह आठ प्रधान होने से इन्हीं को कहकर ऐश्वर्याधिकार बता दिया गया है | *आठों सिद्धियां* इस प्रकार हैं १- अणिमा २- गरिमा ३- लघिमा ४- महिमा ५- प्राप्ति ६- प्राकाम्य ७- ईशित्व एवं ८- वशित्व | यथा :--
*अणिमा लघिमा प्राप्ति प्राकाम्य महिमा तथा !*
*ईशित्व च वशित्वं च तथा कायानसायिता !!*
इनमें से प्रथम चार कायिक या दैहिक हैं व शेष चार मानसिक | संक्षेप में देह को अणु मात्र तक बना लेना *अणिमा सिद्धि* का लक्षण है , इससे वह पत्थर की शिला में भी आसानी से प्रवेश कर सकता है | देह की गुरुत्व (भारीपन) को अतिशय वृद्धि कर सकने में क्षमता का नाम ही *गरिमा* है | *लघिमा* अभिप्राय हल्केपन से है जिसमें देह इतनी हल्की की जा सकती है कि पुष्प की पंखुड़ी पर बैठ जाने पर भी वह मुड़ती नहीं है | *महिमा* में देह को इतना बड़ा बना लिया जाता है कि आकाश हमें ही समाती है | *अणिमा महिमा गरिमा लघिमा* को परस्पर विरोधी क्षमताएं कह सकते हैं | मानसिक *सिद्धियां* अत्यंत गोपनीय होती हैं वह मानसिक संकल्प से ही क्रियाशील होती है | इनके भी यथा नाम तथा गुण यद्यपि भगवद्माया के रूप है | सभी *सिद्धियां* भगवान में आश्रय पाती है | *हनुमान जी* में भी यह स्वयं सिद्ध थीं | प्रथम चार सिद्धियों के उदाहरण मानस में देखे जा सकते हैं | यथा :--
*मसक समान रूप कपि धरी*
या
*जस जस सुरसा बदन बढ़ावा !*
इसे *अणिमा* कहा जा सकता है |
वही *महिमा* की व्याख्या :-
*तूसु दून कपि रूप दिखावा*
के रूप में *तुलसीदास जी महाराज* ने की है |
*देह बिसाल परम हरुआई !*
*मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई !!*
यह *लघिमा* का अनुपम उदाहरण है | वही यदि *गरिमा* को देखा जाय तो :--
*जेहि गिरि चरन देइ हनुमंता !*
*चलेउ सो गा पाताल तुरंता !!*
से सिद्ध हो जाता है | इस प्रकार *हनुमान जी* में चार दैहिक एवं चार मानसिक *सिद्धियां* अर्थात *अष्ट सिद्धियां* विद्यमान थीं |
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*नव निधि*
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*सिद्धियों* की भाँति ही *निधियों* का यद्यपि सामान्य अर्थ आकर आशय आदि होता है | अतिशय सुखों की प्राप्ति के साधन स्वरूप इनकी संख्या भी पूर्णता की प्रतीक अर्थात नौ मानी गई है | *नौ निधियों* के नाम शास्त्रों में इस प्रकार कहा गए हैं :--
*महापद्मश्च पद्मश्च शंखो मकर कच्छपौ !*
*मुकुंद कुंद नीलश्च खर्वश्च निधयो नव !!*
अर्थात १- महपद्म , २- पद्म , ३- शंख , ४- मकर , ५- कच्छप , ६- मुकुंद , ७- कुन्द , ८- नील एवं ९- खर्व आदि यह नौ प्रकार की *निधियां* हनुमान जी में विद्यमान थीं |
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*दाता*
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*अष्ट सिद्धियां* एवं *नव निधियां* स्वयं *हनुमान जी* को तो यह जन्म से ही प्राप्त थी किंतु स्वयं को उपलब्ध होना व अन्य किसी को दे देना दोनों भिन्न बाते हैं | उदाहरण के लिए हमें मनुष्य योनि तो प्राप्त है पर किसी भी अन्य योनि के प्राणी को क्या हम मानव उपलब्ध करा सकते हैं ? कदापि नहीं ! इसलिए *हनुमान जी* को इन *अष्ट सिद्धियों* एवं *नव निधियों* को किसी को भी अपनी ओर से दे सकने की क्षमता का वरदान देकर *दाता* कहा गया है | *हनुमानजी* की उपासना से इनके प्राप्त का वर्णन पुराणों में उपलब्ध होता है | योग साध्य तो यह पूर्व में भी थे इन्हें श्री सीताजी (योगमाया) योगियों को प्रदान करती हैं , परंतु इस वरदान के बाद *हनुमान जी* स्वयं सभी *सिद्धियों* और *निधियों* के दाता हुए | यह शक्ति *हनुमान जी* में सीता जी के द्वारा प्राप्त हुई | *दाता अस बर दीन* कहा गया है |
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*वर*
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आशीर्वाद केवल स्नेह , उपचार , धार्मिक व्यवहार नीति को ही सूचित करता है धार्मिक विधि होने से प्रभावी भी होता है परंतु देश , काल , परिस्थिति के अनुसार आशीष देने वाले की आध्यात्मिक क्षमता पर यह प्रभाव सीमित होता है | *वर* भी आशीर्वाद वाक्य की तरह शब्दारूढ़ होकर ही संचरित या उपलब्ध होता है , किंतु यह अधिकार वाक्य व दिव्य क्षमता पर सीमित होकर सद्य यथावत् प्रभावी होता है | आशीर्वाद जहां भावनारूढ़ होकर संचरित होता है वहां वरदान शब्दारूढ़ होकर संचरित होता है |
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*अस वर दीन्ह*
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*अस वर दीन्ह* कहकर *तुलसीदास जी* ने यहां स्पष्ट किया कि यह आशीर्वाद नहीं वरदान दिया गया है | अतः अमोघ है | *अस* शब्द का भी गूढार्थ है | *अस* कहकर वाक्य की या शब्दों की यथार्थता कह दी है कि यह वरदान दिया गया है | *भाव है कि* यदि *दाता* के साथ कोई शर्त लगी होती कि अमुक साधक साधन या काल में तुम दे सकते हो तो वह भी कृपा परिस्थिति सापेक्ष होती | पर *अस*;कहकर यह बताने का प्रयास किया गया है कि *दाता* बस ऐसा *वर* दिया गया अर्थात शेष सभी बातें स्वयं *हनुमान जी* की कृपा पर ही आधारित है , क्योंकि *दाता* शब्द के बाद *अस* कहकर विराम सूचित किया गया है |
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*जानकी माता*
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*अस वर दीन्ह* लिखने के बाद *जानकी माता* कहा गया इसमें कोई यह न समझें कि यह तो *माता* का स्नेहवश आशीर्वाद है | *अस वर* कहकर वात्सल्य के साथ *सीता का ऐश्वर्य* भी कहने का प्रयास *तुलसीदास जी* ने किया है | *जानकी माता* कह कर देने वाले का परिचय स्पष्ट करते हुए स्पष्ट किया है कि इसे *अंजना माता* का वरदान न समझा जाय | यदि मात्र *माता* लिखा गया होता तो पाठकों को भ्रम हो सकता था कि कौन *माता* ? इसीलिए स्पष्ट रूप से *जानकी माता* लिख दिया है | *वर* से अधिकार , ऐश्वर्या *माता* से संबंध तथा वात्सल्य का दिव्य दर्शन *तुलसीदास जी महाराज* ने कराने का प्रयास किया है |
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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