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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *तिरपवनवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*बावनवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*राम रसायन तुम्हरे पासा !*
*सदा रहउ रघुपति के दासा !!*
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अब आगे :----
*तुमरो भजन राम को भावै !*
*जनम जनम के दुख विसरावै !!*
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*तुमरो भजन राम को भावै*
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*तुमरो* अर्थात तुम्हारा ! *भजन* का अर्थ है सेवा ! *भावै* अर्थात प्रिय लगता है या अच्छा लगता है | *हनुमान जी* का *भजन* सेवा भी राम जी को प्रिय लगता है अर्थात यदि कोई व्यक्ति *हनुमान जी* की सेवा करता है तो राम जी का भी प्रिय बन जाता है | *भजन* तुम्हारा व प्रियता राम जी की | *हनुमान जी* की सेवा ही राम जी को अच्छी लगती है | जैसी सेवा आपकी उन्हें प्रिय लगती है वैसे किसी अन्य की सेवा नहीं लगती , क्योंकि *हनुमान जी* आप ही ऐसे हैं जिन्हें राम जी की सेवा के अतिरिक्त और कुछ अच्छा नहीं लगता | *श्री रामचरितमानस* में लिखा है ऐसे भक्तों के हृदय में ही भगवान का निवास होता है | जैसे कि :--
*जाहि न चाहिअ कबहुँ किछु तुम सन सहज सनेहु !*
*सो राउर निज गेहु !!*
विचार कीजिए कि अपना घर किसे नहीं अच्छा लगता है ? इस प्रकार भगवान श्री राम *हनुमान जी* के हृदय में निवास करते हैं क्योंकि वे आपकी सेवा के वशीभूत हैं |
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*जनम जनम के दुख बिसरावैं*
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जीव यदि *हनुमान जी* का *भजन* करने लगता है तो राम का प्रिय होकर जन्म जन्मांतरों के दुखों को भूल जाता है | ध्यान देने की बात है कि *जन्म* शब्द ही दो बार यहां लिखा गया है | भाव यह है कि यद्यपि *जन्म एवं मृत्यु* दोनों के दुखों को भूल जाता है पर *मृत्यु* शब्द शेकप्रद है | स्वभाव से ही व *मृत्यु* शब्द ना भी कहे तो भी *जन्म* के बाद पुनः *जन्म* कहने पर पूर्व देह की *मृत्यु* का भाव स्वत: ही अंतर्निहित तो हो जाता है | इसलिए *जन्म मृत्यु* के दुख को *जन्म जन्म* का दुख कह दिया है |
*जनमत मरत दुसह दुख होई*
के अनुसार *जन्म एवं मृत्यु* दोनों समय ही दुख दुख होता है पर मन का स्वभाव है कि वह सामने उपस्थित भय या निकट अनुभूत दुख ही स्मरण करता है या कर सकता है | इसीलिए किसी भी देहधारी को सामान्य प्राकृतिक नियम से पूर्व देह की समाप्ति का दुख नवीन देह प्राप्ति के बाद स्मरण नहीं रहता | देहांतर पूर्व का दुख स्वत: ही विस्मरण हो जाता है | यदि भयंकर दुख निकटतम पूर्व अनुभूत रहता है तो इस *जन्म* का ही , वह भी आगे सुख प्राप्त हो जाने पर भूल जाता है | राम जी के भक्तों को *मृत्यु* दुख नहीं होता क्योंकि उन्हें देह आसक्ति नहीं रहती है या फिर *मृत्यु* प्राप्ति नहीं होती है | यथा :--
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*समय पाय तन तजि अनयासा*
*या फिर*
*बालि कीन्ह तन त्याग !*
*सुमन माल जिमि कण्ठ ते गिरत न जानइ नाग !!*
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या फिर वह जीव *हनुमान जी* की ही भांति वह भी अजर - अमर - चिरंजीवी हो जाता है | दुख तो अनागत है जो राम प्रिय होने के कारण आएगा ही नहीं , पर जो *जन्म* हो चुका है व दुख देखा है वह भी भूल जाता है ! अर्थात बार-बार *जन्म* लेने के चक्कर से छूट जाता है तो समस्त *जन्मों* के समस्त दुख भूल जाता है | *जन्म* पुनः ना होने से उसका दुख नहीं रहेगा , *मृत्यु* दुख तो अभी अप्राप्त है अतः उसे *तुलसीदास जी महाराज* ने यहाँ ना लिखते हुए स्पष्ट लिख दिया कि *जनम जनम के दुख बिसरावैं* |
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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