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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *पचपनवनवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*चौवनवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*अंतकाल रघुबर पुर जाई !*
*जहां जन्म हरि भक्त कहाई !!*
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अब आगे :---
*और देवता चित्त ना धरई !*
*हनुमत सेई सर्व सुख करई !!*
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*और देवता चित्त न धरई*
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इस चौपाई का संबंध इसके पूर्व की चौपाई से है जैसा कि कहा गया है :- *जहां जन्म हरि भक्त कहाई* व आगे *तुलसीदास जी* लिखते हैं *और देवता चित्त ना धरई* अर्थात जो अंतकाल में साकेतधाम चला गया वह जहां पर भी जन्म लेगा *और किसी देवता को चित्त में धारण न* करके श्री हरि अर्थात भगवान राम का ही भक्त कहलाएगा तथा *हनुमान जी* की सेवा उसे *सर्व सुख* प्रदान कर देगी , अथवा *हनुमत सेई* अर्थात *हनुमान जी* जिस की सेवा करते हैं वे भगवान राम या उनकी भक्ति सभी सुख उपलब्ध कराएगी | जीव भगवान राम का अनन्य भक्त हो जाएगा अन्य कोई देवता *चित्त में नहीं ठहर सकता* व *हनुमान जी* की सेवा ही *सर्व सुख* प्रदान करने वाली है |
*एक और गंभीर बात पर विचार कर लिया जाय कि*
भगवान का स्वरूप सच्चिदानंद अर्थात सत + चित + आनंद में है इसमें *सत्* व्याप्त है व *चित्त* प्रकाशक होने से साधन रूप है व *आनंद* की उपलब्धियों का परम लक्ष्य होता है | *आनंद अर्थात सर्व सुख* की उपलब्धि तभी होती है जब व्याप्त सत्व की सर्वत्र व्यापकता का जीव को ज्ञान हो जाय व वह तब संभव है जब प्रकाशमय चिन्मय चित्त को ग्रहण कर लिया जाय | ऐसा और कोई देवता स्वभाव से ही नहीं करते हैं क्योंकि देव योनि भोग योनियँ हैं | *हनुमान जी* योग प्रधान स्वभाव वाले हैं | *भगवान शिव* के अंशावतार होने के कारण निरंतर ध्यान परायण रहते हैं व *हनुमान जी* सगुण साकार चित्त चिन्मय , प्रकाशक स्वयं राम को ग्रहण किए हुए हैं | इस प्रकार कहा कि *और देवता चित्त न धरई* अर्थात पकड़ नहीं पाते हैं या पकड़ते नहीं हैं व *हनुमान जी* उन्हीं की सेवा *(हनुमत सेई)* ही करते रहते हैं |
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*जगत प्रकास्य प्रकाशक रामू !*
*मायाधीश ज्ञान गुन धामू !!*
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*चिदानंदमय देह तुम्हारी !*
*विगत विकार जान अधिकारी !!*
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*सत्य* व्याप्त रहा , *आनंद* भक्त हृदयों में प्रकाशित होने लगा व *चिन्मय देह* सगुण साकार रूप में *आनंद* का स्रोत बन गई | अतः *चिदानंदमय देह तुम्हारी* लिख दिया गया | किसी भी देवता या इष्ट का साधन एकाग्र मन से सिद्धि प्रदायक होता है *चंचल चित्त* से कोई भी देवता प्रसन्न नहीं होते फिर *हनुमान जी* कैसे होंगे ? अतः यहां पर *गोस्वामी तुलसीदास जी* ने लिखा कि और किसी भी देवता को चित्त में धारण न कर *हनुमान जी* की सेवा करते रहने से समस्त सुखों को प्राप्त किया जा सकता है | समष्टिगत *विश्वास* के स्वरूप भगवान शंकर को कहा जाता है | यथा :- *भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ* व उन्हीं के अंशावतार व्यष्टिगत *विश्वास* के रूप में *हनुमान जी* होने से समस्त सुख व सिद्धियों के *(अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता)* देने वाले हैं | विश्वास का अर्थ अटलता या अचलता है | यथा :-- *बटु विश्वास अचल निज धर्मा* व यह उपदेश ही *और देवता चित्त ना धरई* से दिया गया है न कि किसी अन्य देवताओं की इसमें निन्दा आया हीनता कही गई है | *धरई* का अर्थ है धारण करना , कसकर पकड़े रहना आदि | सांसारिक भोग ऐश्वर्य प्रदान कराने वाले देवता चित्त प्रकाश को *न धरई* अर्थात नहीं काबू करते हैं या पकड़ते हैं वे प्रकास्य भोग सामग्री पदार्थों को रखते हैं जिनमें अपनी-अपनी सीमा व गुण प्रधानता का ही सुख प्रदान करने की क्षमता है | परंतु *हनुमान जी* तो *सकल गुणनिधानम्* हैं तो *सर्व सुख* क्यों नहीं प्रदान कर देंगे ? क्योंकि *हनुमान जी* ने तो *गुण खानि जानकी सीता* व *सुख के सुखराम* को ग्रहण कर रखा है |
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*हनुमत सेई सर्व सुख करई*
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इस चौपाई के पहले की चौपाई में *हनुमान जी* के भजन से श्री राम की भक्ति धाम , प्रियता की प्राप्ति *तुलसीदास जी महाराज* ने बताया है | यथा:---
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*तुमरे भजन राम को भावैं !*
*जनम जनम के दुख विसरावैं !!*
*अंत काल रघुबर पुर जाई !*
*जहां जन्म हरि भक्त कहाई !!*
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तो उस जीवन को जो यह सोचे कि भक्ति मुक्ति से पूर्व हमें तो सुख चाहिए तो विचार कीजिए जब जीव को भगवान की भक्ति मिल जाती है तो संसार का कोई भी सुख शेष नहीं रह जाता है | इसका प्रमाण *मानस* में मिलता है | अवलोकन कीजिए :----
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*अस विचारि जे मुनि विज्ञानी !*
*जाचहिं भगति सकल सुख खानी !!*
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*सुन खगेश हरि भगति बिहाई !*
*जे सुख चाहहिं आन उपाई !!*
*ते सठ महासिंधु बिनु तरनी !*
*पैरि पार चाहहिं जड़ करनी !!*
*या फिर इसके आगे भी देखा जा सकता है :--*
*राम भगति मनि उर बस जाके !*
*दुख लवलेश न सपनेहुँ ताके !!*
*गरल सुधा सम अरिहित होई !*
*तेहि मनि विनु सुख पाव न कोई !!*
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*मानस* की चौपाइयों से यह सिद्ध हो जाता है की भक्ति प्राप्त हो जाने के बाद कोई भी *सुख* शेष नहीं रह जाता और जिसने *हनुमान जी* की सेवा कर भक्ति कर ली उसके लिए कोई *सुख* शेष नहीं रह जाता इसीलिए *गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज* ने बड़े भावपूर्ण शब्दों में लिख दिया है *हनुमत सेई सर्व सुख करई*
*एक अन्य भाव*
*हनुमान जी* का स्वभाव विशेषता गुणगान में यही सुंदर है कि और किसी भी देवता को आप चित्त में नहीं लाते ( व आनंद भाव से एकाग्रता व विश्वास पूर्वक ) भगवान श्रीराम को ही सेते रहते हैं उन्हीं की आराधना में मगन रहते हैं जो *सर्व सुख करई* अर्थात सभी सुखों की कर्त्री राम की भक्ति है | *हनुमान जी* जिसे सेते हैं वही *सर्व सुख कारी* राम भगति सेवनीय है व उसकी प्राप्ति के बाद *और कोई देवता चित्त में ठहरता ही नहीं है* यथा :-- *अब ना आँख आवत कोऊ* इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखकर *गोस्वामी जी महाराज* ने बहुत ही गूढ़ विवेचना करते हुए लिखा है :-
*और देवता चित्त ना धरई !*
*हनुमत सेई सर्व सुख करई !!*
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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