
*मानव जीवन बड़ी ही विचित्रताओं से भरा हुआ है | ब्रह्मा जी की सृष्टि में सुख-दुख एक साथ रचे गए हैं | मनुष्य के सुख एवं दुख का कारण उसकी कामनाएं एवं एक दूसरे से अपेक्षाएं ही होती हैं | जब मनुष्य की कामना पूरी हो जाती है तब वह सुखी हो जाता है परंतु जब उसकी कामना नहीं पूरी होती तो बहुत दुखी हो जाता है | यहीं एक शब्द और पढ़ने को मिलता है "विषाद" | विषाद क्या है ? जब मनुष्य का दुख पराकाष्ठा को पार कर जाता है तब वह विषादयुक्त हो जाता है , उसे यह लगने लगता है यह संसार व्यर्थ है अब हमें जीवन का त्याग कर देना चाहिए | परंतु यह विचार मनुष्य को क्यों होता है ? इसका मुख्य कारण है मोह | मोह की अधिकता के कारण मनुष्य विकल हो जाता है | महाभारत के युद्ध में "अर्जुन" भी मोह से ग्रसित होकर विषादयुक्त हो गया था तब भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का दिव्य उपदेश दिया था और "अर्जुन" के मोह का विनाश करते हुए महाभारत का युद्ध करवाया | गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में स्पष्ट लिख दिया है :- "मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला" | जिस दिन मनुष्य का मोह समाप्त हो जाता है उसी दिन वह हर्ष एवं विषाद से ऊपर उठ जाता है | मनुष्य को सदैव भगवत्स्वरूप की प्राप्ति करने का प्रयास करना चाहिए और भगवत्स्वरूप की प्राप्ति कैसे होगी इसका वर्णन हमें श्रीमद्भागवत में मिलता है | सातवें स्कंध में वेदव्यास जी महाराज ने स्पष्ट लिखा है कि :- "विमुञ्चन्ति यदा कामान्मानवो मनसि स्थिताम् ! तर्ह्येव पुण्डरीकाक्ष भगवत्वाय कल्पते !! अर्थात :- जब मनुष्य सभी कामनाओं का त्याग कर देता है तब वह भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है | और मनुष्य की कामनाएं उसका पीछा नहीं छोड़ती यही कारण है कि मनुष्य हर्ष एवं विषाद के बीच झूला करता है | जिस दिन मनुष्य दूसरों से अपेक्षाएं रखना बंद कर देता है उसी दिन वह इस दुख एवं विषाद से छुटकारा पा जाता है |*
*आज घर-घर में महाभारत मची हुई है ` पिता पुत्र से दुखी है , पुत्र पिता से दुखी है , पति पत्नी से दुखी है तो पत्नी भी पति से दुखी दिख रही है | इसका एक ही कारण है एक दूसरे से अपेक्षा रखना तथा मोह की अधिकता भी एक प्रमुख कारण कहीं जा सकती है | कुछ घरों में तो यह भी देखने को मिलता है कि पुत्र सात्विक प्रवृत्ति का है परंतु पिता तामसिक प्रवृत्तियों का अनुयायी है ऐसे में कभी-कभी पुत्र को यह लगता है कि मैं घर छोड़ दूं या आत्महत्या कर लूँ | घर छोड़ देना या आत्महत्या कर लेना किसी समस्या का निदान नहीं कहा जा सकता | यदि मोह का विनाश नहीं हुआ है तो घर छोड़ देने के बाद भी मन घर में लगा रहेगा और आत्महत्या करके भी मोह का विनाश नहीं हो पाता और जीव प्रेतयोनि को प्राप्त करके अपने परिवार के आसपास ही घूमा करता है | ऐसे सभी पुत्रों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" स्पष्ट रूप से बताना चाहता हूं कि इस संसार में मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगने के लिए मानव योनि प्राप्त करता है | मनुष्य को दूसरों की अपेक्षा अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए दैत्यराज हिरणाकश्यप ने अपने पुत्र पहलाद को भजन करने से रोका परंतु प्रहलाद अपने कर्म से विमुख नहीं हुआ और ना ही उसने अपने पिता हिरण्यकश्यप से कोई शिकायत की | यह प्रहलाद के शब्द कर्मों का ही प्रताप था कि अद्भुत रूप धारण करके भगवान को प्रकट होना पड़ा | उसी प्रकार प्रत्येक पुत्र को अपने कर्म में प्रवृत्त रहना चाहिए | यह संसार को कर्म क्षेत्र है यहां जो जैसा करेगा उसको वैसा फल मिलना ही है दूसरों के कर्मों से दुखी या सुखी ना हो करके अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि मनुष्य को अपने ही कर्मों का फल भोगना पड़ता है | ऐसी स्थिति में मनुष्य "अर्जुन" की तरह विचलित हो जाता है तो आज कलयुग में यदि भगवान कृष्ण जैसा सद्गुरु नहीं मिल सकता है तो उनकी वाणी अर्थात श्रीमद्भगवद्गीता मनुष्य को सद्गुरु के रूप में मार्गदर्शन कर सकती है | ऐसे मोह एवं विषाद में फंसे हुए मनुष्य को श्रीमद्भगवद्गीता का अध्ययन करते रहना चाहिए जिससे कि उसे ऐसी विषम परिस्थितियों से ऊपर उठने का मार्ग मिलता रहे अन्यथा परिवार के मोह में फंसकर मनुष्य अपने कर्मों से भी विमुख हो जाता है |*
*आज मनुष्य के दुख एवं विषाद का सबसे बड़ा कारण अपने धर्म ग्रंथों एवं सद्गुरु से विमुखता भी कही जा सकती है | प्रत्येक मनुष्य को इन परिस्थितियों से बचने के लिए अपने धर्म ग्रंथों का अध्ययन एवं सद्गुरु से सत्संग करते रहना चाहिए |*