*सनातन धर्म में चातुर्मास्य का विशेष महत्त्व है | चार महीने चलने वाला यह विशेष समय भगवत्भक्ति प्राप्त करने वाले साधकों के लिए महत्त्वपूर्ण होता है | आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी अर्थात हरिशयनी एकादशी को जब भगवान सूर्य मिथुन राशि पर जाते हैं तो चातुर्मास्य प्रारम्भ हो जाता है | हरिशयनी का अर्थ होता है कि भगवान श्री हरि विष्णु चार महीने के लिए निद्रा के वशीभूत होकर निद्रा में चले जाते हैं | आषाढ शुक्लपक्ष की एकादशी को निद्रा में लीन हुए भगवान आज अर्थात कार्तिक शुक्ल एकादशी को निद्रा का त्याग करके जाते हैं | आज के दिन को "देवोत्थानी या "देव उठनी" एकादशी कहा जाता है | आषाढ़ शुक्लपक्ष से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक विवाह , यज्ञोपवीत , दीक्षाग्रहण , गृहप्रवेश , प्रतिष्ठा आदि शुभकार्य वर्जित माने गये हैं | क्योंकि जगत के साक्षीभूत एकमात्र नारायण हैं और जब वही निद्रा में लीन होते हैं तो किसको साक्षी मानकर कोई शुभकार्य किया जा सकता है | इन चार महीनों में जो भी पौराणिक विधि के अनुसार चातुर्मास्य व्रत का पालन कर लेता है वह भगवान श्रीहरि के धाम का उत्तराधिकारी हो जाता है | आज कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की "हरि प्रबोधिनी" एकादशी के दिन भगवान श्रीहरि निद्रा का त्याग करते हैं और पुन: समस्त शुभकार्य प्रारम्भ हो जाते हैं | आज के ही दिन साधकों के द्वारा चातुर्मास्य व्रत का समापन किया जाता है | आज भगवत्भक्तों को श्रीहरि के मन्दिर में हरिविग्रह के समक्ष रहना चाहिए क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि देव देवेश श्री हरि जब निद्रा का त्याग करके अपने नेत्रों का उन्मीलन करते हैं तो उस समय जिसके ऊपर उनकी दृष्टि पड़ जाती है उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है | ऐसी मान्यता है कि आज के दिन मनुष्य जो भी भगवान को अर्पण करता है स्वर्ग में वही वस्तु उसको उपभोग करने के लिए प्राप्त होती है | सनातन के समस्त विधि विधान इसीलिए अलौकिक हैं क्योंकि यहाँ मृत्यु के बाद भी जीवन को समाप्त नहीं माना जाता और मृत्योपरांत भी जीव को सद्गति मिले ऐसी व्यवस्था की जाती है |*
*आज के समाज में चारों ओर दुख ही दुख दिखाई पड़ता है , कोई भी सुखी नहीं दिखाई पड़ता , किसी न किसी प्रकार का दुख सबको ही है | इसका प्रमुख कारण है कि आज का मनुष्य विशेषकर सनातनधर्मी अपने धर्म - कर्म से विमुख होते हुए सनातन धर्म की मान्यताओं एवं परंपराओं को ना मान करके मनमाने कार्य करने में तत्पर है | जहां एक ओर हमारे धर्म ग्रंथ एवं बुजुर्ग बताते हैं कि चातुर्मास्य में प्रत्येक शुभ कार्य वर्जित होता है वहीं आज का मनुष्य सारे कार्य मनमाने ढंग से करने के लिए तैयार दिखाई पड़ रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि आज समाज में विद्वानों की बात को दरकिनार करते हुए योग गृह प्रतिष्ठा , गृहारम्भ तो कर ही रहे हैं साथ ही विवाह संस्कार भी चातुर्मास्य में संपन्न कर रहे हैं | इसीलिए आज प्रत्येक गृहस्थाश्रम में किसी न किसी प्रकार की विपन्नता एवं अराजकता का साम्राज्य दिखाई पड़ता है | विचार कीजिए कि हमारे पूर्वजों ने या हमारे सनातन के पुराधाओं ने यदि कोई नियम बनाया है तो उसका कोई कारण रहा होगा , यदि किसी कार्य की वर्जना की गयी है तो उसका भी विशेष कारण रहा होगा , परंतु आज का मनुष्य अधिक शिक्षित होने के अहंकार में सनातन ग्रंथों की तो बात ही छोड़ो अपने ही घर में उपस्थित अपने बुजुर्गों की बात भी नहीं मानना चाहता है | स्वयं को शिक्षित कहने वाला मनुष्य बड़े ही अहंकार से अपने ही बुजुर्गों को अशिक्षित और जाहिल तक कह देता है , जबकि यह सत्य है कि अपने पूर्वजो का अपमान करके मनुष्य आज सुखी तो नहीं है बल्कि समाज को दिखाने के लिए सिर्फ खोखली हंसी हंस रहा है | आज समाज में स्वयं को सनातन का पुरोधा कहने वाले भी सनातन के नियमों को मानते हुए नहीं दिखाई पड़ते हैं | यही कारण है कि आज समाज में उच्च पदों पर बैठे हुए महान पुरुषों का कोई महत्व नहीं रह गया है क्योंकि वे स्वयं तेजहीन हो गए हैं तो समाज को क्या दिशा देंगे ? |*
*सनातन धर्म की समस्त मान्यताएं वैज्ञानिकता से ओतप्रोत है | यदि युगों पहले कोई मान्यता बनाई गई है तो उसका कारण रहा होगा | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को आधुनिकता के साथ साथ अपनी सनातन मान्यताओं को भी मानते रहना चाहिए |*