*इस संसार में जन्म लेने के बाद कोई भी प्राणी दुख नहीं पाना चाहता | चाहे वह अच्छे कर्म करने वाला हो या बुरे कर्म करने वाला | अच्छे बुरे सभी लोग सुख ही पाना चाहते हैं क्योंकि सुख ही , आनंद की आत्मा का मूल स्वभाव है | इस सुख को प्राप्त करने के लिए कोई दान , पुण्य , परोपकार आदि अच्छे कर्म करता है और कोई चोरी , हत्या , लूट , व्यभिचार , दुराचार , भ्रष्टाचार आदि कर्म करता हैं | चोरी , लूट , हत्या आदि भी मनुष्य दुख पाने के लिए नहीं बल्कि सुख पाने की आशा में ही करता है , क्योंकि ऐसे मनुष्य विचार करते हैं कि चोरी और भ्रष्टाचार करके अधिक से अधिक धन अर्जित हो जाएगा जिससे विषय भोगों का भरपूर भोग होगा | मनुष्य को उससे सुख पाने की आशा होती है परंतु यह आशा कभी पूरी नहीं होती | आत्मा का मूल स्वभाव आनंदमय है इसलिए मनुष्य अपने कर्मों से सदा सुख एवं आनंद प्राप्त करना चाहता है | परंतु बुरे कर्म से अर्जित सुख भला आत्मा को कैसे तृप्त कर सकते हैं ? धन दौलत से ऐसे मनुष्यों को कभी सुख की अनुभूति नहीं हो पाती क्योंकि बुरे कर्म करते रहने से उनके हृदय में भय भरा होता है | उनका मन किसी अनहोनी की आशंका से हमेशा आशंकित रहता है | जब मनुष्य के हृदय में आशंका एवं भय भरा होगा तो उसे सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? यदि सुख की प्राप्ति की आकांक्षा है तो उसका एकमात्र उपाय है ईश्वर की शरणागति | ईश्वर की शरणागति में ही निर्भयता है और जहां निर्भयता है वही आनंद है , वहीं सुख है | हमारे कर्म कैसे भी हों यदि शरणागत भाव से ईश्वर की शरण में सच्चे हृदय से चला जाय तो भगवान मनुष्य के सभी पापों का शमन करके कुकर्म को क्षमा कर देते हैं और प्राणी को अपनी शरण में ले लेते हैं | भगवान श्री राम स्वयं घोषणा की है :- "कोटि विप्र वध लागहिं जाहूँ ! आये शरन तजहुँ नहिं ताहू !! सनमुख होइ जीव मोहिं जबहीं ! जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं !! इसलिए मनुष्य को बड़े से बड़े कुकर्म करने के बाद , बड़े से बड़े अपराध ब्यभिचार , दुराचार करने के बाद भी सच्चे मन से ईश्वर की शरण में जाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यही एक मार्ग है हृदय को पवित्र करने का | जब मनुष्य का हृदयं पवित्र हो जाता है तभी उसको सुख प्राप्त होता है अन्यथा कोई दूसरा उपाय नहीं है |*
*आज आधुनिकता के परिवेश में भौतिक संसाधनों में सुख पाने की कामना में मनुष्य इतना व्यस्त हो गया है कि उसे ईश्वर की शरण में जाने का तो छोड़ दीजिए उनके विषय में सोंचने का भी समय नहीं है | आज सबकुछ दिखावे का हो गया है | लोग थोड़ा सा पूजा पाठ करके , थोड़ी देर ध्यान लगा कर स्वयं को भगवान का शरणागत होना दिखाते हैं परंतु पूजन से उठने के बाद ही वे स्वयं को अपने घर का , एवं संसार का मालिक समझने लगते हैं | आज लोग वचन से तो शरणागत होते हैं परंतु मन एवं कर्म से ईश्वर की शरण में नहीं जाते इसलिए मनुष्य को ना तो ईश्वर की शरण मिल पा रही और ना ही उसको सुख प्राप्त हो रहा है | जब तक मनुष्य मन , वचन एवं कर्म तीनों के साथ ईश्वर की शरण में नहीं जाएगा तब तक उसे ईश्वर की शरण नहीं प्राप्त हो सकती | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इसके कारण पर विचार करता हूं तो यही परिणाम निकलता कि आज मनुष्य का अपने मन के ऊपर नियंत्रण ही नहीं है जिसके परिणाम स्वरूप मन के बहकावे में आकर मनुष्य चाहते हुए भी ईश्वर की शरण में नहीं जा पा रहा है और ना चाहते भी बुरे कर्मों में लिप्त हो रहा है | जब तक हम अपने मन पर नियंत्रण नहीं करेंगे तब तक कुछ भी नहीं कर सकते | मनुष्य के पास दो प्रकार के मन होते हैं | सचेतन मन एवं अचेतन मन | अचेतन मन हमारे पूर्व जन्म या इस जन्म के किए गए बुरे कर्म संस्कारों से भरा हुआ होता है , उसका प्रवाह इतना प्रबल होता है कि उसके प्रवाह के प्रभाव में आकर हम स्वयं को बुरे कर्म करने से नहीं रोक पाते | यही अचेतन मन जब शुभ कर्मों के संस्कारों से भरा हुआ होता है तो उन संस्कारों के प्रबल प्रवाह में बहते हुये हम स्वभावत: शुभ कर्म , पुण्य कर्म करने के लिए प्रेरित होते हैं | अपने अचेतन मन में हमको शुभ कर्मों का खाता भरने की आवश्यकता है जिस दिन हम मन पर नियंत्रण करते हुए मन , वचन एवं कर्म से ईश्वर के शरणागत हो जाएंगे उस दिन हमें सर्वत्र सुख ही सुख दिखाई पड़ेगा अन्यथा इस संसार में सुख किसी को नही है |*
*ईश्वर की शरण ही मनुष्य के लिए कल्याणकारी एवं मंगलकारी हो सकती है हमारे लिए ईश्वर की शरणागति से श्रेष्ठ कोई दूसरा साधन नहीं है क्योंकि इसी में सुख है , आनंद ही आनंद है |इसमें पाने के अतिरिक्त खोना कुछ नहीं है |*