*सनातन धर्म के प्रत्येक पर्व त्योहार हर्षोल्लास से मनाये जाते है | हमारे प्रत्येक उत्सव एवं त्यौंहारों में भिन्नता होने के बाद भी प्रत्येक पर्व में एक समानता भी है कि कोई भी पर्व - त्यौहार या पूजन - अनुष्ठान हो उसका प्रारम्भ "दीप प्रज्ज्वलन" अर्थात दीपक जलाकर ही किया जाता हौ | जब तक उस दीपक में घी या तेल शेष रहे तब तक वह जलता रहता है दीपक (ज्योति) बुझाने की परम्परा हमारी नहीं रही है क्योंकि हम "असतो मां सदगमय एवं तमसो मां ज्योतिर्गमय" के सिद्धान्त को मानकर असत्य से सत्य की ओर एवं अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने में विश्वास रखते हुए जीवन को प्रकाशित रखने में विश्वास एवं धारणायें रखते हैं | जिस प्रकार प्रत्येक पर्व एवं उत्सव महत्वपूर्ण है उसी प्रकार किसी भी मनुष्य का जन्मोत्सव भी महत्वपूर्ण है | जिस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्मोत्सव श्रीरामनवमी एवं लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव जन्माष्टमी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है उसी प्रकार मनुष्य को अपना जन्मोत्सव पूर्ण विधि-विधान के साथ मनाना चाहिए | शास्त्रों में जन्मोत्सव संस्कार को "वर्धापन संस्कार" कहा गया है | जन्मोत्सव के दिन मनुष्य को ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सर्वप्रथम धरती माता एवं गणेश भगवान को प्रणाम करके नित्यक्रिया से निबटने के बाद शरीर में उबटन लगा करके स्नान करने का विधान हौ | तत्पश्चात दीप प्रज्वलित करके भगवान गणेश गौरी के पूजन के साथ ही धरती मैया एवं अपने जन्म नक्षत्र का पूजन करना चाहिए | इसी के साथ सनातन धर्म में बताए गए अष्ट चिरंजीवी पुण्य आत्माओं (जो कि अमरत्व को प्राप्त हैं) उनका ध्यान एवं उनको प्रणाम करके स्वयं की आयु को अक्षुण्ण बनाने की प्रार्थना करनी चाहिए | मनुष्य के "अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमानश्च विभीषण: ! कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन: !! सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेय मथाष्टमम् ! जीवेद्वर्षशतं शोपि सर्वव्याधिविवर्जितम् !! इस मंत्र का पाठ करके पूजन सम्पन्न कर माता - पिता एवं स्वजनों को प्रणाम करना चाहिए | इस प्रकार जन्मोत्सव मनाने का दिव्य विधान हमारे सनातन धर्म में बताया गया है | परंतु आज हम सब भूलते जा रहे हैं |*
*आज हम स्वयं को या तो आधुनिक मानने लगे हैं या फिर सनातन संस्कारों के विषय जानते ही नहीं है | दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि जानने का प्रयास भी नहीं करते | आज जहां संपूर्ण विश्व हमारे वैदिक विज्ञान की श्रेष्ठता को मानने लगा है वही हम पाश्चात्य संस्कृति के चटपटे एवं मनगढ़ंत क्रियाकलापों को अपना करके स्वयं को गौरवान्वित होने का आभास करने लगे हैं | जहाँ आज माता - पिता को मम्मी - डैडी ( जिसका अर्थ होता है मृत शरीर) कहने को अपनी शान समझते हैं वहीं जन्मोत्सव संस्कार पर ज्योति (मोमबत्ती) बुझाकर अपने जीवन के आने वाले नववर्ष में अंधकार को निमंत्रण दे देते हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" विचार करके गौरवान्वित होता हूँ कि धन्य है हमारी गरिमापूर्ण भारतीयता एवं सनातन संस्कार | भारतीय संस्कृति सदैव से अंधकार को प्रकाश से भरने की प्रेरणा देती हैं “तमसो मा ज्योतिर्गमय” | परंतु आज लोग ज्योति बुझाकर यानि प्रकाश को भगाकर अंधकार फैला कर खुश होते हैं, चिल्लाते हैं | आज यदि ऐसा हमारे समाज में हो रहा है तो इन सब में कहीं न कहीं बुजुर्ग पीढ़ी की भी गलती है | जीवन की भागदौड़ में कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा कि क्या कुछ छूट रहा है - छोटेमोटे पर आवश्यक संस्कार | हमें विचार करना चाहिए कि बच्चे हमारे कुलदीप हैं, उनके यशकीर्ति तथा उज्ज्वल भविष्य की कामना दीपक जला कर करनी चाहिए, मोमबत्तियाँ बुझाकर तो कभी नहीं | आयु और श्री वृद्घि के लिए प्रति वर्ष जन्म दिन (वर्धापन) मनाने की विधि शास्त्रों में बताई गई है | इस तरह के संस्कारों की जानकारी के अभाव में युवा पीढ़ी पश्चिमी अधकचरे आचरण अपनाए तो दोष किसका ???*
*आज समाज के बुजुर्गों का यह दायित्व बनता है कि अपनी संतानों को सनातन के दिव्य संस्कारों से समय समय पर परिचित कराते रहें , अन्यथा नयी पीढ़ी ज्ञान के अभाव में अपने संस्कारों को सदा सर्वदा के लिए भूल जायेगी |*