*ईश्वर द्वारा बनाई गई चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता हुआ जीव अपने कर्मानुसार जब मनुष्य योनि को प्राप्त करता है तो यह जीव अनेक प्रकार के बंधनों से बंध जाता है | इसी बंधन से मुक्त हो जाने पर जीव का मोक्ष माना जाता है | जीव का बंधन क्या है ? इस पर हमारे महापुरुषों के अनेकानेक विचार प्राप्त होते हैं वैसे तो कहा गया है कि :- "मन: एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो:" अर्थात मन ही मनुष्य के बंधन का कारण है , परंतु मन बंधन का कारण क्यों बनता है ? इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है आ विद्या एवं अविद्या दो शक्तियां माया की गतिमान है | विद्यारूपी माया मनुष्य को मोक्ष दिलाती है तो अविद्या रूपी माया मनुष्य को बंधन में डालती है , क्योंकि अविद्या से ही जीव में कामना का प्रकट होती है और कामना के वशीभूत होकर के जीव अनेकों प्रकार के कर्म करता है और इन्हीं कर्मों के कारण जीव अनेकों प्रकार के बंधन में बंध जाता है | यदि जीव का बंधन है तो इसी संसार में जीवन्मुक्त महात्मा भी हुई है | जीवन्मुक्त कौन है ? इसके विषय में हमारे शास्त्रों में निर्देश मिलता है :- "सर्वभूतस्थिते ब्रह्म , भेदाभेदो न विद्यते ! एकमेवाभिपश्यश्च जीवन्मुक्त: स विद्यते !!" अर्थात सभी भूतों में स्थित हो ब्रह्म भेद से इसलिए परे है क्योंकि वह सभी में एक रुप है अभेद से परे इसलिए है कि अनेकों भूतों में अनेक होता हुआ भी एक है , या यूं कह सकते हैं अनेकों जीवों में रमण करने वाली आत्मा परमात्मा रूप में एक है | जो साधक इस भाव को अपना लेते हैं वे जीवन्मुक्त कहे गए हैं | भेददृष्टि जीव को बंधन में डालती है और अभेददृष्टि जीव को जीवन मुक्त कर देती है | जो भी साधक सर्वत्र परमात्मा का दर्शन करके बिना भेदभाव के क्रियाकलाप करता है उसे बंधन कभी भी बांध नहीं सकते क्योंकि वह साधक यदि उच्च योनि में उत्पन्न किसी जीव में ईश्वर को देखता है तो निम्न योनि में उत्पन्न जीवों में भी उसे ईश्वर ही दिखता है | ऐसी भावना रखने वाले महापुरुष ही जीवन्मुक्त कहे गए हैं और वे जीव के , प्रकृति के , माया के सभी बंधनों से परे होते हैं |*
*आज अनेको विद्वान अनेक प्रकार की टिप्पणियां करते हैं | सबके इष्ट देवता अलग-अलग हैं कोई राम को मानता है , कोई कृष्ण को पूजता है , कोई शक्ति की उपासना करता है परंतु इतना सब होने के बाद उसकी विद्वता उस समय धूमिल हो जाती है जब वह इन देवी-देवताओं में भेद करने लगता है , वह भूल जाता है कि "ईश्वर सर्वभूतमय अहई" या फिर "हरि व्यापक सर्वत्र समाना" के भाव को तज करके अपने अपने इष्ट देवता को श्रेष्ठ बताने लगता है | आज कलियुग में यही हो रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" अविद्या से उत्पन्न कामना के वशीभूत होकर कर्म करने वालों को देखता हूं | यह सत्य है कि इससे कोई भी बचा नहीं है | आज यदि मोह माया के बंधन प्रबल हो गए हैं तो उसका एक ही कारण है कि जीव ने निष्काम कर्म करना बंद कर दिया है | कोई भी पूजा - उपासना , साधना या अनुष्ठान कहीं भी निष्काम नहीं रह गया है | यही कारण है कि आज माया के प्रपंचों में जीव स्वयं को अनेकों प्रकार के बंधनों से बंधता रहता है , और इसी में छटपटाता रहता है ` जिस दिन मनुष्य कण-कण में परमात्मा का दर्शन करने लगेगा उसी दिन उसकी भेददृष्टि समाप्त हो जाएगी और वह जीव माया के सभी बंधनों से मुक्त हो जाएगा परंतु आज तो पर "उपदेश कुशल बहुतेरे" की बहुलता दिखाई पड़ रही है | दूसरों को "मैं और मेरा" के बंधन से मुक्त होने का उपदेश देने वाले स्वयं इस बंधन से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं | अविद्या का साम्राज्य विस्तृत होता जा रहा है और इसी अविद्या के वशीभूत होकर अनेकों प्रकार की दुष्कामनाएं मनुष्य के मन मस्तिष्क में प्रकट होती रहती हैं और इन्हीं के वशीभूत होकर मनुष्य कर्म - कुकर्म , अकर्म - विकर्म कर रहा है जिसके कारण उसका बंधन कसता चला जा रहा है ` विषय - वासनाओं की तीव्र हवा को सुखद मान करके जीव अज्ञान रूपी निद्रा में सुखद सपने देख रहा है | अज्ञान रूपी स्वप्नलोक में विचरण करता हुआ जीव अविद्या के कारण अपनी उलझने वाली ग्रंथि को खोल नहीं पाता इसका एक ही कारण है कि स्वयं को साधक विद्वान मानने वाले भी इस बंधन को नहीं छुड़ा पा रहे | यह बंधन जितना विकट है उतना ही सरल साधन भी है , और वह है सतसंग | परंतु आज इसे छुड़ाने के लिए सबसे सरल साधन सत्संग से लोग किनारा कर रहे हैं | भगवान की कथाओं का श्रवण करने में , सत्संग करने में लोगों को शर्म आती है , जबकि मानस में बाबा जी ने स्पष्ट लिखा है "जीवन्मुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान" अर्थात :- जीवनमुक्त योगी सनकादिक आदि ऋषि भी अपने ध्यान तपस्या को छोड़कर के रामचरित का गायन और उसका श्रवण करते थे परंतु आज ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है |*
*कोई भी साधना उपासना या अनुष्ठान यदि मनुष्य ना कर पाए तो कम से कम उसे सत्संग करते रहना चाहिए क्योंकि किसी भी साधना उपासना की प्रथम सीढ़ी सत्संग ही है बिना सत्संग के कुछ भी नहीं प्राप्त किया जा सकता |*