*मानव जीवन में मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है क्योंकि यह सृष्टि ही कर्म प्रधान है | मनुष्य को जीवन में सफलता एवं असफलता प्राप्त होती रहती है जहां सफलता में लोग प्रसन्नता व्यक्त करते हैं वही असफलता मिलने पर दुखी हो जाया करते हैं और वह कार्य पुनः करने के लिए जल्दी तैयार नहीं होते | जीवन में किसी भी कार्य में असफलता मिलने पर मनुष्य को निराश एवं दुखी ना हो करके असफल होने के कारणों पर विचार करके पुनः उस कार्य को करने का प्रयास करना चाहिए | किसी भी कार्य में मिली हुई असफलता यह सिद्ध करती है कि सफलता का प्रयास पूरे मन से नहीं किया गया क्योंकि असफलता तभी प्राप्त होती है जब सफलता हेतु किए जाने वाला प्रयास आधा अधूरा होता है या उसमें कुछ कमी होती है | यदि व्यक्ति असफलता पर निराश ना हो करके उसे सफलता प्राप्ति के मार्ग की सीढ़ी बना ले और उससे कुछ सीखते हुए आगे बढ़े तो निश्चित रूप से असफलता ही व्यक्ति को वह सफलता दिला देती है | इस संसार में अनेक उदाहरण ऐसे देखने को मिलते हैं जहां लोग असफलताओं की अनगिनत सीढ़ियों को पार करते हुए सफलता के शिखर तक पहुंचे हैं | ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह लोग ना तो असफलताओं से घबराए और ना ही निराश हुये बल्कि अपनी असफलता से उन्होंने एक सीख ली जिससे कि अगली बार उस कार्य को करने में उन्होंने बार-बार की जाने वाली त्रुटियों को दूर किया और जब उनके द्वारा की गई त्रुटियाँ दूर हो गई तब उनको सफलता प्राप्त हो गई | सफलता एवं असफलता के बीच सबसे मुख्य विषय होता है कि संबंधित कार्य करने में व्यक्ति को आनन्द कितना आ रहा है ! क्योंकि जब कार्य करने में मनुष्य को आनन्द आने लगता है तब वह सफलता एवं असफलता की चिंता किए बिना अपने कार्य में लगा रहता है और जब मनुष्य चिंता मुक्त होकर कार्य में आनंद प्राप्त करते हुए किसी कार्य को करता है तो उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती है | इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को असफलता मिलने पर निराश ना हो कर पुनः उस कार्य को आनन्दित मन से करते रहना चाहिए यही सफलता का सफल सूत्र कहा गया है |*
*आज के युग में मनुष्य सब कुछ तुरंत प्राप्त करना चाहता है कर्म करने पर तो फल प्राप्त नहीं होना चाहता और बिना कर्म किये ही फल प्राप्त करने का इच्छुक आज का मनुष्य हो रहा है जिसके कारण उसे पग पग पर निराशा एवं कष्ट प्राप्त हो रहा है | आज अनेक साधकों को कष्ट होता है कि उनका मन साधना में नहीं लगता ऐसे सभी लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहता हूं कि यदि साधना में बार-बार असफलता प्राप्त हो रही है या मन को एकाग्र करने में मनुष्य असफल हो रहा हो तो उसे बार-बार प्रयास करना चाहिए | यह प्रयास तभी सफल होगा जब साधना में वह आनंद खोजने का प्रयास करेगा क्योंकि संसार में जितने भी आविष्कार या सिद्ध कार्य हुए हैं वह सब मन की गहराइयों में जाकर ही सफल हुए हैं | मन जब खोज की दिशा में गहराई में लीन होता गया , तल्लीन होता गया तो फिर उसे आनंद प्राप्त होने लगता है और यही आनंद मनुष्य को सफलता प्रदान कराता है | जिस प्रकार संसार के वैज्ञानिक सफलता और असफलता की चिंता किए बिना अपने कर्म में तल्लीन रहते हैं इसी प्रकार साधक को भी बिना कोई चिंता किये अपनी साधना में तल्लीन रहना चाहिए | यदि ध्यान के माध्यम से मन को साधने का प्रयास करते हुए उसकी गहराइयों में प्रयास किया जाय तो उसका मन आनंदित होने लगता है और जब मनुष्य के मन को आनंद प्राप्त होने लगता है तो उस कार्य में उसकी रुचि बढ़ती है और यही रूचि उसको सफलता दिलाती है | कर्म करने में आनंद अनुभव करने का अर्थ यह है कि बाहरी कर्म करते हुए भीतर के आनंद को बाहर उड़ेलने का प्रयास किया जाय जिससे कि हमारी बाहरी दुनिया भी आनंद से सराबोर हो सके | यही सफलता का सूत्र हो सकता है , इस सूत्र को अपनाकर साधक अपनी सफलता साधना के रूप में प्राप्त कर सकता है | प्रत्येक मनुष्य को यह ध्यान देना चाहिए कर्म करने में किसी भी प्रकार से हतोत्साहित होकर कोई सफलता नहीं प्राप्त की जा सकती बल्कि प्रसन्नता के साथ कर्म करते हुए मनुष्य सफलता की ऊंचाइयों को छूता चला जाता है |*
*सफलता असफलता का विचार त्याग करके अपने कार्य में जो मनुष्य आनंद ढूंढने लगता है वही एक दिन सफलता को प्राप्त कर पाता है इसलिए प्रत्येक कार्य को आनंदित होकर करने का प्रयास करना चाहिए इसका परिणाम सुखद ही होगा |*