*सनातन धर्म की मान्यतायें एवं परम्परायें आदिकाल से दिव्य रही हैं | हमारे पूर्वजों ने जो नियम बनाए थे उसमें मानव का हित समाहित था | मानव जीवन में अनेक प्रकार की पुण्य धर्म करने का वर्णन मिलता है इन्हीं में दान को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है | दान करके मनुष्य अपनी जाने अनजाने कर्मों से छुटकारा तो पाता ही था साथ ही उसका पुण्य भी बढ़ता जाता था | हमारे महापुरुषों ने बताया कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी आय का दशांश एवं भोजन का चतुर्थांश दान कर देना चाहिए ऐसा करते रहने से मनुष्य को किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगता है | अपने द्वारा दान की गई वस्तु का स्वयं के द्वारा दोबारा उपभोग नहीं होना चाहिए ऐसा करने पर मनुष्य को अनेक जन्म तक उसका फल भोगना पड़ता है | हमारे पुराणों में अनेक कथाएं मिलती है जहां दान करने के बाद भूल बस भी उसका उपयोग हो जाने पर अनेक जन्मों तक उसको भोगना पड़ा है | जब बात दान की आती है तो सबसे महत्वपूर्ण कन्यादान हो जाता है | कन्यादान करने के बाद कन्या के यहां का भोजन एवं जल तक हमारे पूर्वजों ने वर्जित किया था क्योंकि उनकी मान्यता थी कि कन्यादान कर देने के बाद कन्या के यहां का कुछ भी उपयोग करना अपने ही दान को खाने के बराबर है | यह परंपरा आदिकाल से लेकर आज तक चलती चली आ रही है | कुछ लोग आज भी अपनी पुत्री के यहां का दाना पानी नहीं करते हैं परंतु परिवर्तन सृष्टि का नियम है धीरे धीरे मनुष्य की मान्यताओं में भी परिवर्तन देखने को मिल रहा है |*
*आज युग बदला , मनुष्य की मानसिकता बदल गई और मनुष्य ने प्राचीन परंपराओं को अपनी सुविधा के अनुसार बना लिया | जहां पूर्व काल में पुत्री के यहां का जल तक वर्जित माना जाता था वही आज कुछ लोग अपनी पुत्री के यहां रह कर भोजन करते हैं और चलते समय पुत्री को किये हुए भोजन के खर्च स्वरूप कुछ धन दे देते हैं | कुछ लोगों की मान्यता है पुत्र एवं पुत्री में समानता है जब मनुष्य पुत्र के यहां भोजन कर सकता है तो पुत्री के यहां क्यों नहीं ?? ऐसे सभी लोगों से मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा यह सत्य है कि पुत्र एवं पुत्री बराबर है परंतु जहां दान की गई वस्तु के उपभोग करने का प्रश्न उठता है वहां मैं ऐसे लोगों से पूछना चाहूंगा कि उन्होंने अपनी कन्यादान किया है पुत्रदान तो नहीं किया ?? यदि पुत्रदान भी कर दिया होता तो पुत्र के यहां भी भोजन करना वर्जित हो जाता | परंतु आज पुत्री के यहां भोजन करने का चलन सा हो गया है | लोग पहले से ही अनेक प्रकार की योजनाएं बनाकर कर पुत्री के यहां जाते हैं और तरह-तरह के भोजन करते हैं | चलते समय पुत्री को कुछ धन देकर उस भोजन की भरपाई करना चाहते हैं | विचारणीय एवं हास्यास्पद है कि आज मनुष्य अपनी ही पुत्री के घर को भोजनालय समझ रहा है जहां भोजन करने के बाद उसके बदले में धन देकर चला आ रहा है | तो क्या पुत्री का विवाह करने के बाद अपने लिए एक नए भोजनालय की स्थापना आज का मनुष्य कर रहा है ?? विचार कीजिए हम कहां से कहां आ गए | अपनी मान्यताओं एवं परंपराओं से हटकर अलग चलने वालों को आने वाली पीढ़ियां क्या कहेंगी , यह भविष्य के गर्भ में है |*
*मनुष्य ने समय-समय पर प्राचीन परंपराओं को अपने अनुसार बनाने का प्रयास किया है ऐसा होना भी चाहिए परंतु कुछ परंपराएं हैं जिनमें कभी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता |*