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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🐍🏹 *लक्ष्मण* 🏹🐍
🌹 *भाग - २६* 🌹
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*➖➖➖ गतांक से आगे ➖➖➖*
अद्भुत एवं अलौकिक ज्ञानगंगा में स्नान करके *लक्ष्मण जी* प्रेम मगन हो गये | अपलक भगवान श्रीराम को निहारते हुए *लक्ष्मण जी* भगवान श्रीराम के द्वारा दिये जा रहे दिव्य ज्ञान को श्रवण कर रहे हैं | भगवान श्रीराम कहते हैं :----
*माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव !*
*बंध मोक्षप्रद सर्वपर माया प्रेरक सीव !!*
*हे लक्ष्मण !* जो माया , ईश्वर एवं स्वयं के स्वरूप को नहीं जानता उसे ही जीव कहा गया है | जो बन्धन (कर्मानुसार) और मोक्ष देने वाला सबसे परे एवं माया का प्रेरक है वही ईश्वर है | भगवान कहते हैं :- *हे लक्ष्मण !* मुझे प्राप्त करने के लिए अनेकानेक उपाय हैं परंतु इम सभी उपा़यों की जड़ (मूल) है मेरी भक्ति | भक्ति के बिना कोई भी साधन नहीं साधा जा सकता है | भगवान कहते हैं :----
*जा तें वेगि द्रवउँ मैं भाई !*
*सो मम भगति भगत सुखदाई !!*
*जो सुतंत्र अवलम्ब न आना !*
*तेहि आधीन ग्यान विग्याना !!*
*हे लक्ष्मण !* जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ वह मेरी भक्ति है ! यही भक्तों को सुख देने वाली है | *हे लक्षमण* मेरी भक्ति स्वतंत्र है , भक्ति करने के लिए ज्ञानी - विज्ञानी होना आवश्यक नहीं है | इस भक्ति के सोपानों का वर्णन करते हुए भगवान कहते हैं :- *लक्ष्मण !* भक्ति के कई अंगों में मुख्यत: :----
*श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् !*
*अर्चनं वन्दनं दास्यं साख्यमात्म निवेदनम् !!*
भक्ति के नौ भेद कहे गये हैं | भगवान के नाम , रूप , लीला , धाम आदि का श्रवण , जहाँ भी अवसर मिले सतसंग का हिस्सा बनते हुए भगवान की लोलाओं को सुनते रहना चाहिए यही *पहली भक्ति* है | सतसंग में सुने हुए का कीर्तन करना *दूसरी भक्ति* है | कीर्तन करते - करते भगवान के स्वरूप एवं उनकी लालाओं को याद करना ही *तीसरी भक्ति* है | जब मनुष्य भगवान के स्वरूप का ध्यान करता है तो भगवान का स्वरूप उसके हृदय में स्थापित हो जाता है , उसी स्वरूप के चरणों की मानसिक सेवा करना ही *चौथी भक्ति* है | चरणों की सेवा करते हुए पूजा एवं अर्चना करना *पाँचवी भक्ति* तथा पूजा करने के बाद वन्दना करना *छठीं भक्ति* कही गयी है | मनुष्य जब किसी की वन्दना करता है तो उसका भाव दास का होता है , जब मनुष्य भगवान को स्वामी एवं स्वयं को दास मानने लगे तो यह उसकी *सातवीं भक्ति* होती है | इस प्रकार भक्ति करते - करते एक स्थिति ऐसी भी आती है कि मनुष्य को अपना ईष्ट ( ईश्वर ) भी सखा की भाँति लगने लगता है यही साख्यभाव ही *आठवीं भक्ति* कही गयी है | स्वयं को ही समर्पित कर देना भक्ति की पराकाष्ठा है इसे ही आत्मनिवेदन अर्थात *नवीं भक्ति* कहा गया है | इस प्रकार की भक्ति करने वाला मनुष्य मेरा परमप्रिय होता है | भगवत्प्रेमी सज्जनों ! आज समाज में भक्तों की कमी नहीं है परंतु यह भी सत्य है कि आज के भक्त दिखावे के ज्यादा ही हैं | आज के युग में जब किसी को सतसंग में चलने को कहो , भक्ति करने को कहो तो आज का मनु्ष्य जबाब देता है :---
*घर बनवाय लेई लड़की बियाहि लेई ,*
*लरिका कै गवन लाइ तब भक्ति करबै !*
*सतसंग भक्ति हित कवन हड़बड़ी बाटै ,*
*सुंदर जवानी पाइ सुख - भोग सरबै !!*
*अबहीं तौ थोड़ी सी उमर मोरी बीती बाय ,*
*वृद्ध होय जाब तौ ज्ञान - भक्ति करबै !*
*"अर्जुन" ऐसे माया के भुलावा मांहिं भूलि जीव ,*
*यह नहिं जानइ आज काल्हि बीच मरबै !!*
इस प्रकार मनुष्य भक्ति करना ही नहीं चाहता | *लक्ष्मण जी* ने कहा :- हे भगवन ! यह भक्ति मिलती कैसे है ? भगवान कहते है :--
*भगति तात अनुपम सुखमूला !*
*मिलइ जो संत होंइं अनुकूला !!*
*हे लक्ष्मण !* भक्ति अनुपम एवं सुखों की मूल है और यह तभी मिल सकती है जब संत अनुकूल एवं प्रसन्न हों | *लक्षमण* ने कहा :- भगवन ! भक्ति का सबसे सरल मार्ग क्या है ?? भगवान कहते हैं :- *हे लक्ष्मण !* भक्ति के सबसे सरल साधन को सुनो ! मुझे प्राप्त करने का सबसे सरल साधन भक्ति का प्रथम चरण है कि मनुष्य ब्राह्मणों से प्रेम करते हुए वेदों के अनुसार अपने अपने वर्णाश्रम के कर्मों का पालन करे | जो ब्राह्मणों का द्रोही है वह मुझे कभी नहीं प्राप्त कर सकता क्योंकि :---
*जग में यह अद्भुत प्रसंग है !*
*द्विज मम एक विशेष अंग है !!*
*हे लक्ष्मण !* जब मनुष्य इस प्रकार भक्तिपथ का पथिक बनता है तो वह विषयों से विमुख होने लगता है , हृदय में उत्पन्न वैराग्य से मनुष्य के हृदय में मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न होता है | जब मनुष्य मेरा प्रेमी हो जाता है तो वह श्रवण आदि नौ भक्ति के माध्यम से मेरे प्रति आकर्षित होता है | जब मनुष्य संतों के चरणों में प्रेम करते हुए मुझे ही अपना सबकुछ मानते हुए मन , वचन एवं कर्म से मेरा भजन नियमपूर्वक करते हुए मेरा गुणगान करते हुए रोमांचित होकर गदगद वाणी से मुझे भजता है तो सहज ही उसके वश में हो जाता हूँ | *लक्ष्मण* केवल परमात्मा (मेरे) के पूजन , ध्यान , स्मरण में लगे रहना ही मेरी भक्ति नहीं है | *हे लक्ष्मण !* मेरा प्रिय भक्त वह है द्वेषरहित हो , दयालु हो , सुख दु:ख में विचलित न हो , बाहर एवं भीतर से शुद्ध हो , सर्वारंभ परित्यागी हो , चिंता व शोक से मुक्त हो , जिसे कोई कामना न हो , शत्रु - मित्र , मान -अपमान , स्तुति - निंदा एवं सफलता - असफलता में समभाव रखने वाला हो ! संक्षेप में यदि कहा जाय तो भक्त को अपने ईष्टदेव में अपने मन को लगाने के साथ साथ तन मन की पवित्रता , स्थिरता , सौम्यता , सहजता एवं उदारता विकसित करने का प्रयास करते रहना चाहिए | गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :- *हे अर्जुन !*
*अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च !*
*निर्ममो निरंहंकार: सम दु:ख सुख: क्षमी !!*
*संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़ निश्चय: !*
*मय्यर्पित मनो बुद्धिर्योमद्भक्त: स में प्रिय: !!*
जो द्वेषभाव से रहित , स्वार्थरहित होकर सबको प्रेम करने वाला , सब पर समान रूप से दया भाव रखने वाला , ममता - अहंकार से दूर , सुख दु:ख में समान हो , योगी एवं संतुष्ट रहते हुए दृढ़ श्रद्धा एवं विश्वास के साथ निरंतर मुझमें मन लगाये रहता है वह मेरा परमप्रिय भक्त है | तुलसीदास जी लिखते हैं :---
*भगति जोग सुनि अति सुख पावा !*
*लछिमन प्रभु चरनन्हिं सिर नावा !!*
भगवान श्रीराम के द्वारा *भक्तियोग* की व्याख्या सुनकर *लक्ष्मण जी* भगवान को प्रणाम करते हुए कहते हैं :- हे प्रभो ! अब हमें *वैराग्य* के विषय में बताने की कृपा करें | श्रीराम *लक्ष्मण* को *वैराग्य* के विषय में बताना प्रारम्भ करते हैं |
*शेष अगले भाग में :----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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