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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🐍🏹 *लक्ष्मण* 🏹🐍
🌹 *भाग - २७* 🌹
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*➖➖➖ गतांक से आगे ➖➖➖*
माया , ज्ञान एवं भक्ति की व्याख्या करने के बाद मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम *लक्ष्मण* को *वैराग्य* की शिक्षा देते हुए कहते हैं :- *हे लक्ष्मण !* मुझे प्राप्त करने के लिए बताये गये साधनों में एक साधन ध्यान के दो पहिये हैं , पहला अभ्यास और दूसरा *वैराग्य* | मनुष्य की सभी इन्द्रियों में प्रधान है मन क्योंकि मन के ही द्वारा सभी इन्द्रियां संचालित होती हैं | कहा गया है कि :----
*"दृष्टानुश्रविकविषय विस्तृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्यं"*
*हे लक्ष्मण !* मनुष्य का मन पंचतत्वों से बने आकर्षक संसार की ओर भागता रहता है , एक भी क्षण ऐसा नहीं होता जब यह मन संयार से विरक्त हो जाय | जिस क्षण मनुष्य (चाहे कुछ ही समय के लिए सही) अपनी इन्द्रियों को विषयों की लालसा एवं ज्वरता से मुक्त कर ले वही क्षण *वैराग्य* का होता है | भगवान कहते हैं :---
*कहिअ तात सो परम विरागी !*
*तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी !!*
*हे लक्ष्मण !* परम वैराग्यवान वही है जो सारी सिद्धियों और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग दे | अपने मन को भौतिक इन्द्रिय सुखों से समेटकर स्वयं में स्थापित कर लेना ही वैराग्य है | *हे लक्ष्मण !* यदि जीवन में ध्यान पथ को अपनाना है तो *वैराग्य* की आवश्यकता पड़ेगी क्योंकि जब तक विषयों से *वैराग्य* नहीं होगा तब तक मनुष्य ध्यानावस्थित हो ही नहीं सकता | ध्यान लगाने की प्रक्रिया प्रारम्भ करते ही मन इधर - उधर भागने लगता है ! यह मन ही मनुष्य एक के बाद दूसरे आकर्षण के प्रति आकर्षित करते हुए भगाता रहता है , यह भागदौड़ निष्फल ही रहती है क्योंकि कल्पनाओं में कुछ प्राप्त नहीं हो पाता यदि मन की इच्छा पूरी भी हो जाती है तो भी यह मन न आराम करता है और न ही करने देता है और एक दूसरी नयी इच्छा को पूर्ण करने की योजनायें बनाने लगता है | जब तक मनुष्य अपनी इन असीमित इच्छाओं पर रोक नहीं लगाता तब तक वह संसार में भ्रमित रहा करता है | जिस दिन मनुष्य को इन इच्छाओं से मुक्ति मिल जाती है उसी दिन यह मान लो कि उसमें *वैराग्य* के अंकुर प्रस्फुटित हे गये हैं |
*लक्ष्मण जी* कहते हैं : हे भगवन ! आपकी माया इतनी विस्तृत है कि मनुष्य उसी में उलझा रहता है | यह मायामय संसार मनुष्य को भ्रमित किये रहता है तो हे प्रभो ! इस संसार में रहकर *वैराग्य* कैसे सम्भव है ? भगवान कहते है !:- *हे लक्ष्मण !*वैराग्य* का यह अर्थ कदापि नहीं हुआ कि परिवार एवं समाज का त्याग करके उससे विमुख हो जाय ! परिवार में रहते हुए रहते हुए अनियंत्रित कुचेष्टाओं पर नियंत्रण करना भी *वैराग्य* है | हे *लक्ष्मण :------*
*नाश है जहान के महान धन शान बान ,*
*नाश यह देह कुल कुटुम जगीर है !*
*नाशवान विद्या बुद्धि वाक्यज्ञान बहु मान ,*
*नाशवान रमणीय बुद बुद नीर है !!*
*दुख को पसारि जहाँ देखो तहँ दुख आहि ,*
*क्रोध मोह काहि करो जीवन अधीर है !*
*"अर्जुन" अभिलाष तजि अविनाशी पद मांहि ,*
*ध्यान करि मस्त रहत कोई फकीर है !!*
जो भी इस संसार को नाशवान मान लेता है वही काम क्रोध मोहादि से दूर रहते हुए जीवन यापन करता है | *लक्ष्मण* यह तभी सम्भव है जब मनुष्य अपने मन को नियंत्रित करने में सफल हो पाता है क्योंकि मन इतना चंचल होता है कि किसी भी इन्द्रिय सुख अथवा किसी भी सुने हुए अलौकिक सुख की चेष्टा करता रहता है , मन की प्रक्रिया ही ध्यान एवं *वैराग्य* में सबसे बड़ी बाधा है | *वैरागी* को सुख दुख की लालसा नहीं होती क्योंकि *वैरागी* जानता है कि सुख की कामना ही दुख का कारण है क्योंकि जब मनुष्य की कोई अभिलाषा नहीं पूर्ण होती तभी उसको दुख होता है |
आजकल लोग अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर अपनी पत्नी एवं पुत्रों का त्याग कर *वैरागी* बनने का स्वांग रचते हैं ! वास्तव में इनको *वैराग्य* होता ही नहीं है क्योंकि *वैराग्य* का अर्थ परिवार एवं समाज का त्याग करना कदापि नहीं है | यदि त्यागना ही है तो अपनी कुचेष्टाओं का त्याग करना चाहिए | जो लोग परिवार का त्याग करके स्वयं को रागहीन अर्थात *वैरागी* सिद्ध करना चाहते हैं उनको यह भी सोंचना चाहिए कि सृष्टि का *प्रथम *वैरागी भगवान शिव को* कहा गया है | भगवान शिव ने पहले सती फिर पार्वती के साथ रहते हुए भी *वैराग्य* का पालन किया था | *महाराज जनक* की गणना भी प्रमुख *वैरागियों* में होती है परंतु वे भी अपनी पत्नी , प्रजा एवं राज्य से विमुख नहीं हुए उनके बीच रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करके भी वे *वैरागी* कहे गये | भगवान *श्रीकृष्ण* से बड़ा *वैरागी* कौन हो सकता है परंतु उनके भी *सोलह हजार एक सौ आठ* पत्नियां थीं |
*हे लक्ष्मण !* वैराग्य का अर्थ है :- रागों का त्याग करना ! राग मनोविकारों , दुर्भावों तथा कुसंस्कारों को कहते हैं | यद्यपि काम , क्रोध , मोह आदि भी जीवन में आवश्यक है परंतु अधिक व अनावश्यक क्रोधादि ही मनुष्य को दुखों में डालता है | इन सबसे बचने का एकमात्र साधन है सतसंग | क्योंकि :---
*सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहित्वं !*
*निर्मोहत्वे निश्चलतत्वं निश्चलतत्वे जीवन मुक्ति: !!*
*हे लक्ष्मण !* सतसंग से वैराग्य , वैराग्य से विवेक , विवेक से ही स्थिर तत्वज्ञान प्राप्त होता है और तत्वज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है | *लक्ष्मण* ने कहा भैया ! किसे *वैरागी* माना जाय ?? भगवान कहते हैं कि *हे लक्ष्मण !* वास्तविक *वैरागी* वही है जो परिवार में रहते हुए भी :----
*छोड़े सुत नारी तात मात भ्रात गोत्र नात ,*
*झूठ न सोहात बात कै विवेक बोलहीं !*
*काम क्रोध बोध भये शील व संतोष लये ,*
*कर्मबीज बोइ बोइ काया में कलोलहीं !!*
*"अर्जुन" हिये सुहाते सांईं के सुरंग राते ,*
*राव रंक से निसंक तौलि तौलि बोलहीं !*
*काहू ते न वैरता न काहू से सनेह नेह ,*
*प्यारे को पियारे ते निरारे पंथ डोलहीं !!*
*हे लक्ष्मण* इस सबका सार यही है कि :-- इन्द्रियों को दोष न देते हुए विषय - वस्तुओं के सम्मान और सत्कार के साथ युक्तिपूर्वक स्वयं में स्थिर हो जाना ही *वैराग्य* है |
*लक्ष्मण जी* भगवान श्रीराम से ज्ञान , भक्ति , वैराग्य एवं माया की विस्तृत व्याख्या सुनकर बहुत ही प्रसन्न हो गये | इस प्रकार *लक्ष्मण जी* वनवासकाल में जब भी समय मिलता उसकै सदुपयोग भगवान श्रीराम के साथ सतसंग करते हुए वनवास की अवधि को भी दिव्य बनाने में सफल हुए |
*शेष अगले भाग में :----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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