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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🐍🏹 *लक्ष्मण* 🏹🐍
🌹 *भाग - २९* 🌹
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*➖➖➖ गतांक से आगे ➖➖➖*
शूर्पणखा कुरूप होकर खर दूषण के पास गई | उधर पंचवटी में श्री राम ने *लक्ष्मण जी* से कहा :---
*लै जानिकिहिं जाहुं गिरि कंदर !*
*आवा निश्चर कटकु भयंकर !!*
*रहेहुं सजग सुनि प्रभु कै बानी !*
*चले सहित श्री सर धनुपानी !!*
खर दूषण के साथ विशाल राक्षसी सेना के आगमन की आशंका से श्री राम ने *लक्ष्मण* से कहा :- हे भैया ! तुम सीता को लेकर गुफा में चले जाओ क्योंकि भयानक राक्षस आने वाले है | तुम वहाँ रहकर सीता की रक्षा करना मैं राक्षसों से युद्ध करूंगा | श्री राम की आज्ञा पाकर *लक्ष्मण* जी ने अपना धनुष सन्हाला एवं सीता जी को लेकर गुफा में चले गए | तुलसीदास जी इस विकराल युद्ध से *लक्ष्मण जी* को अलग कर देते हैं परंतु बाल्मीकि जी के *लक्ष्मण जी* विशाल राक्षस सेना से श्रीराम के साथ मिलकर युद्ध करते हैं | खर दूषण वध के बाद मर्यादा का पालन करते हुए श्री राम ने सीता जी को अग्निदेव के संरक्षण में रखकर छाया रूपी सीता को अपने पास रख लिया | ध्यान देने वाली बात यह है कि सदैव छाया की भाँति साथ में रहने वाले *लक्ष्मण जी* भी इस भेद को नहीं जान पाये |
भगवत्प्रेमी सज्जनों ! पति - पत्नी का संबंध श्रद्धा एवं विश्वास की बहुत पतली डोर से बंधा होता है इसी के साथ ही यह संबंध गोपनीय भी होता है | यह आवश्यक नहीं है कि पति-पत्नी के मध्य की गई वार्ता या कोई योजना उनकी अतिरिक्त भी कोई जाने | इसी मर्यादा का पालन करते हुए श्री राम ने *लक्ष्मण* से इस भेद को छुपा लिया | एक दिन सीता जी ने पर्णकुटी के पास स्वर्णमयी मृग घूमते देखा , उसे देखकर सीताजी मोहित हो गई और श्री राम के पास आकर कहती हैं :--
*सुनहुं देव रघुबीर कृपाला !*
*एहि मृग कर अति सुंदर छाला !!*
*सत्यसंध प्रभु बध करि एही !*
*आनहुं चर्म कहत वैदेही !!*
सीता जी कहती हैं :- हे देव ! देखो कितना सुंदर मृग है , इसकी छाल बहुत ही मनमोहक लगेगी इसलिए है प्रभो ! इस मृग को मारकर इसकी छाल ले आओ | भगवान श्रीराम पत्नी की बात सुनकर मानवी लीला करते हुए तुरंत उठ कर खड़े हो गए | मित्रों ! पत्नी की मांग को पूर्ण करना यद्यपि प्रत्येक पति का कर्तव्य होता है परंतु पति का यह कर्तव्य भी होता है कि पत्नी की किसी मांग पर उचित / अनुचित का विचार अवश्य करें | आज बिना विचार किए देवताओं का का कार्य सिद्ध करने के निमित्त श्री राम ने अपना धनुष उठाया | उनको ऐसा करता देखकर *लक्ष्मण जी* कहते हैं :- हे भैया ! यह आप क्या कर रहे हैं ? क्या कभी सोने का हिरन देखा या सुना गया है ? हे प्रभु यह माया है ! और आप मायापति !! फिर भी इसके पीछे क्यों जा रहे हैं ?? हे प्रभु ! हमें किसी अनिष्ट की आशंका हो रही है , आप कहीं ना जायं | श्रीराम ने कहा:- *लक्ष्मण* ! हिरन लेने मैं जा रहा हूं , यहां सीता के पास तो तुम रहोगे ही , और *लक्ष्मण* तुम्हारे रहते क्या अनिष्ट हो सकता है ? *लक्ष्मण जी* कहते हैं कि :- है भैया :---
*काल बड़ा बलवान है जग में ,*
*काल से कोई भी ना बच पाये !*
*सोने का हिरन न देखा सुना प्रभु ,*
*काल न जाने क्या लीला रचाये !!*
*अबहिं भयो संग्राम विकट मोहिं ,*
*असुरन्ह कर यह माया लखाये !*
*"अर्जुन" जाहुं न मृग वध कहँ प्रभु ,*
*लक्ष्मण यतनै विनय सुनाये !!*
*लक्ष्मण* की बात सुनकर श्री राम हंस कर कहते हैं :- *लक्ष्मण* ! तुम्हें यह कायरता शोभा नहीं देती है एक वीर पुरुष की भांति तुम सीता की रक्षा करो मैं क्षण भर में वापस आता हूं | इतना कहकर राघवेन्द्र सरकार अपना धनुष वाण लेकर मृग के पीछे चले गये | बहुत दूर तक जाने के बाद जब श्रीराम ने उस मृग पर बाण चलाया तो माया मृग मारीच ने मरते मरते भी रावण का काम बना दिया | तुलसीदास जी लिखते हैं :--
*लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा !*
*पाछे सुमिरेसु मन महुँ रामा !!*
वाण लगते ही मारीच ने श्री राम की आवाज में *हा लक्ष्मण !* बचाओ कह कर गिर पड़ा | मारीच के मुख से निकला *हा लक्ष्मण* का आर्त्तनाद पूरे दंडक वन में गूंजने लगा , और जब जनक नंदिनी सीता जी के कानों में वह करुणामयी आवाज पड़ी तो वे व्याकुल होकर *लक्ष्मण* के पास आईं तथा उनसे कहने लगीं | देवर जी ! तुमने कुछ सुना ? तुम्हारे भैया तुम्हें पुकार रही हैं , वे किसी संकट में घिरे हुए हैं | *लक्ष्मण जी* ने कहा :- हे माता ! आप चिंतित ना हो श्री राम पर कभी कोई संकट आ ही नहीं सकता | ऐसा कहके *लक्ष्मण जी* शांत हो गये परंतु यहां पर सीता जी नहीं शांत हुई , और उन्होंने *लक्ष्मण जी* को कुछ कटु वचन कहे | तुलसीदास जी लिखते हैं *"मरम वचन जब सीता बोला"* यह मरम वचन क्या थे ? यह तुलसीदास जी छुपा ले गए | प्राय: लोग विचार करते हैं कि सीता जी ने *लक्ष्मण* को ऐसा क्या कह दिया कि अपने भैया श्री राम के आज्ञाकारी *लक्ष्मण* उनकी आज्ञा का उल्लंघन करके सीता जी को अकेली छोड़कर चल पड़े | यह रहस्य बाल्मीकि जी ने प्रकट किया है | बाल्मीकि जी लिखते हैं :---
*तमुवाच ततस्तत्र क्षुभितां जनकात्मजा !*
*सौमित्रं मित्र रूपेण भ्रातु: त्वमसि शत्रुवत् !!*
*यस्त्वमस्यामवस्थायां भ्रातरं नाभिपद्यसे !*
*इच्छसि तवं विनश्यन्ति रामं लक्ष्मण मत्कृते !!*
सीता जी कहती है :- अर् सुमित्रानंदन ! तुम तो मित्र के रूप में अपने भाई के शत्रु हो जो कि इस संकट की घड़ी में भी भाई की सहायता करने नहीं जा रहे हो | तुम मेरे लिए अपने भैया राम का नाश होना देखना चाहते हो | सीता जी की बात *लक्ष्मण* के हृदय में बज्र की भांति लगी , परंतु *लक्ष्मण जी* चुप रहे लेकिन सीता जी शान्त नहीं हुई | सीता जी कहती हैं कि *हे लक्ष्मण !* तुम तो यही अवसर ढूंढ रहे हो कि श्रीराम की कब मृत्यु हो जाए और तुम हमें अपनी भार्या बना लो | *लक्ष्मण जी* का हृदय विदीर्ण होता जा रहा था परंतु फिर भी अपने भैया के आदेश का पालन करते हुए वहीं खड़े रहकर सीता जी को समझाते हुए कहते हैं :--
*अब्रवील्लक्ष्मणात्तां सीता मृगवधूमिव !*
*पन्नगा सुर गंधर्व देव दानव राक्षसै: !!*
*लक्ष्मण जी* कहते हैं :- हे विदेहनंदिनी ! आप जानती हैं कि तीनों लोकों में कोई भी श्री राम को पराजित नहीं कर सकता फिर भी आप भयभीत हो रही हैं ? रही बात आवाज की तो सुनो ! इस महावन में राक्षस गण जिनका मनोरंजन ही हिंसा है अनेक प्रकार की बोलियां बोला करते हैं इसलिए आप चिंता न करें | *लक्ष्मण* के ऐसा कहने पर सीता जी के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी और कटु वचनों में *लक्ष्मण* पर भाँति - भाँति के आरोप लगाने लगीं | तब :-- *"हरि प्रेरित लछिमन मन डोला"* सीता जी को प्रणाम करके *लक्ष्मण जी* ने कुटिया के चारों ओर एक रेखा खींची | जिसे *लक्ष्मणरेखा* कहा गया | (यद्यपि *लक्ष्मणरेखा* का वर्णन बाल्मीकि रामायण , महाभारत एवं तुलसीकृत में नहीं मिलता है फिर भी लोककथाओंमें इसकी मान्यता है ) और वन के देवी - देवताओं को सीता की रक्षा का भार सौंपते हुए आंखों में आंसू भरकर सीता जी से कहते हैं ! हे माता ! यद्यपि मेरे लिए श्रीराम की आज्ञा से बढ़कर कुछ भी नहीं है फिर भी आज मैं उस आज्ञा का उल्लंघन करने का अपराध करने जा रहा हूं | आपकी रक्षा ईश्वर करें | प्रसिद्ध कथावाचक *पंडित राधेश्याम जी* अपनी *"राधेश्याम रामायण"* में लिखते हैं :---
*अच्छा माता अब जाता हूं ,*
*तुम सावधान होकर रहना !*
*आज्ञा के भीतर दास रहा ,*
*तुम रेखा के भीतर रहना !!*
*इस रेखा का उल्लंघन कर ,*
*जो पर्णकुटी में आएगा !*
*है आन उसे इस लक्ष्मण की ,*
*तत्काल भस्म हो जाएगा !!*
ऐसा कहकर *लक्ष्मण जी* सीता को अकेली छोड़कर श्रीराम की ओर चल पड़े |
*शेष अगले भाग में :----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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