*इस सृष्टि को चलायमान करने के लिए ब्रह्मा जी ने कई बार नर सृष्टि की परंतु वह तब तक नहीं गतिनान हुई जब तक नारी का सृजन नहीं किया ! नर नारी के जोड़े के सृजन के बाद ही यह सृष्टि विस्तारित हो पाई | मनुष्य के जीवन में पत्नी (नारी) का क्या महत्त्व है यह इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि जब ब्रह्मा जी बिना पति - पत्नी का सृजन किये सृष्टि नहीं कर पाये तो बिना पत्नी के साधारण मनुष्य क्या कर सकता है | सनातन धर्म के चार आश्रमों में गृहस्थाश्रम को धन्य कहा गया है और पत्नी के बिना गृहस्थाश्रम का पालन सम्भव नहीं है | पत्नी के बिना गृहस्थी व्यर्थ है जब तक मनुष्य का विवाह नहीं होता तब तक वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी नहीं होता है और जब तक गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं होगा तब तक मनुष्य पितृऋण से उऋण नहीं हो सकता | जीवन में पत्नी कई रूपों में अपने पति की सेवा करती है नारी का महिमामण्डन करते हुए हमारे धर्मग्रन्थों में लिखा गया है :--- "कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी भोज्येषु माता शयनेषु रम्भा ! धर्मानुकूला क्षमया धरित्री भार्या च षाड्गुण्यवतीह दुर्लभा !!" अर्थात :- कार्य प्रसंग में मंत्री , गृहकार्य में दासी , भोजन कराते वक्त माता , रति प्रसंग में रंभा , धर्म में सानुकुल और क्षमा करने में धरित्री इन छह गुणों को धारण करने वाली पत्नी ही गृहस्थाश्रम की धुरी होती है | पत्नी के बिना पुरुष किसी भी धार्मिक कार्य को करने का अधिकारी नहीं होता है | यह हमें भगवान श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ में देखने को मिलता है जब उन्होंने सीता जी की अनुपस्थिति उनकी स्वर्ण प्रतिमा बनवाकर उसी प्रतिमा को पत्नी मानकर तब यज्ञ सम्पादित किया | मानव जीवन में पत्नी के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है | जिस प्रकार पुरुष के लिए पत्नी का महत्त्व है उसी प्रकार किसी भी नारी का जीवन तब तक अधूरा जब तक वह मातृत्व सुख नहीं प्राप्त करती और यह सुख उसे वैवाहिक बन्धन में बंधकर ही प्राप्त हो सकता है | नर नारी आदिकाल से एक दूसरे के पूरक बनकर गृहस्थाश्रम का पालन करते चले आरहे हैं , इसीलिए कहा गया है "धन्यो गृहस्थाश्रम:" |*
*आज हम इस पर विचार करते हैं कि गृहस्थाश्रम कितना धन्य है ! सनातन धर्म में बताये गये चार आश्रमों में से यदि गृहस्थाश्रम को निकाल दिया जाय तो विचार कीजिए कि शेष तीनों आश्रम का क्या अस्तित्व रह जायेगा | संसार के सारे क्रियाकलाप गृहस्थ आश्रम से ही संचालित होते हैं | ब्रह्मचर्य , वानप्रस्थ , सन्यास आदि आश्रमों का पालन - पोषण एवं भोजन की व्यवस्था गृहस्थ आश्रम के माध्यम से ही होती है | आज के इक्कीस वर्ष पूर्व १२ मई सन १९९९ में मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" वैवाहिक बंधन में बंधकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके इस दिव्य पथ का पथिक हुआ | अपनी "वैवाहिक वर्षगांठ' के पावन दिवस पर आप लोगों के आशीर्वाद , स्नेह एवं प्रेम की कामना करते हुए यही कहना चाहूंगा कि प्रत्येक व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम एवं अपने जीवनसाथी के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए सम्पूर्ण संसार के पालन पर ध्यान रखना चाहिए | कुछ परिवार ऐसे भी हैं जहाँ पति द्वारा पत्नी को तिरस्कृत कर दिया जाता है तो कहीं पत्नी द्वारा पति भी उपेक्षित रहते हैं | ऐसे लोगों को यह समझना चाहिए कि वैवाहिक जीवन मात्र विषय वासनाओं एवं भोग करने का साधन नहीं अपितु संसार के प्रसिद्ध चार आश्रमों की धुरी है | जीवन में पति - पत्नी एक दूसरे से प्रेम करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करके ही इसे दिव्य बना सकते हैं | गृहस्थ आश्रम अतुलनीय है इसकी तुलना में दूसरा कोई आश्रम इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि चाहे वह ब्रह्मचारी हो , संयासी हो या वानप्रस्थी सबका प्राकट्य गृहस्थ आश्रम से ही होता है , इस तथ्य को समझते हुए निष्ठापूर्वक धर्म मानकर गृहस्थाश्रम का पालन करना चाहिए |*
*गृहस्थाश्रम में प्रवेश किये बिना मानव जीवन सार्थक नहीं कहा जाता है , अपने गृहस्थाश्रम को दिव्य बनाने का प्रयास करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य होना चाहिए |*