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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🐍🏹 *लक्ष्मण* 🏹🐍
🌹 *भाग - ३४* 🌹
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*➖➖➖ गतांक से आगे ➖➖➖*
श्री राम जी के वचनों को सुनकर विभीषण ने कहा कि :- ;हे प्रभो ! आप सर्वज्ञ हैं , आप सब जानते हैं मात्र भक्तों को मान देने के लिए ही आप ने प्रश्न किया है तो हे भगवम ! मेरा तो विचार यही है कि यद्यपि आप चाहें तो एक ही बाण से अगाध समुद्र को सुखा सकते हैं परंतु यह मर्यादा के विपरीत होगा | भगवन ! नीति यही कहती है कि आप सागर से मार्ग देने के लिए प्रार्थना करें , क्योंकि समुद्र आपके ही पूर्वज एवं कुलश्रेष्ठ थे वह आपकी बिनती सुन कर के कोई न कोई मार्ग अवश्य बताएंगे | श्रीराम को विभीषण की सलाह उचित लगी परंतु *लक्ष्मण जी* के विभीषण की इस सलाह पर क्रोध आ गया | जब *लक्ष्मण जी* ने देखा कि भैया भी विभीषण की बात का समर्थन कर रहे हैं उनको अपार दुख हुआ और अपने क्रोध को दबाते हुए विनीत भाव से *लक्ष्मण जी* कहते हैं :----
*नाथ दैव कर कवन भरोसा !*
*सोषिअ सिंधु करिअ मन रोषा !!*
*लक्ष्मण जी* कहते हैं कि हे भगवन ! आप धीर वीर होकर भी दैव के भरोसे बैठने जा रहे हैं ? क्या भरोसा है कि दैव आपकी सहायता करने आ ही जाएंगे ?? हे भैया ! वहां लंका में तो माता जानकी का एक-एक क्षण वर्षो की भांति व्यतीत हो रहा है और आप यहां बैठकर समुद्र से मार्ग सुझाने हेतु प्रार्थना करने जा रहे हैं ? श्रीराम ने कहा :- *लक्ष्मण !* यही नीति है | *लक्ष्मण जी* ने कहा भैया ! मैं इस नीति को नहीं मानता | यद्यपि आप मर्यादा पुरुषोत्तम हैं परंतु भैया ! हमें बताया गया है कि *"आपत्ति काले मर्यादा नास्ति"* अतः यह समय मर्यादा के पालन का नहीं है | आप क्रोध करके धनुष उठाइए तथा अपने तीखे बाणों से इस समुद्र को सुखा दीजिए | *लक्ष्मण जी* कहते हैं कि हे भैया ! :----
*दैव के रहकर भरोसे बैठ जाना ,*
*कर्मवीरों कि नहीं यह रीत है !*
*जो भरोसे भाग्य के बैठा रहे ,*
*आलसी कायर महा भयभीत हैं !!*
*भाग्य भी है साथ देता उसी का ,*
*कर्म करने में ही जिसकी प्रीत है !*
*इसलिए "अर्जुन" उठाओ यह धनुष ,*
*इस समय भगवन यह रणनीत है !!*
*लक्ष्मण जी* का क्रोध एवं सीता जी के प्रति चिंता देखकर भगवान श्रीराम ने बड़े प्रेम से कहा :- *हे भैया लक्ष्मण !* मैं यद्यपि जानता हूं कि कर्मवीर भाग्य के भरोसे नहीं रहते परंतु फिर भी मैं समुद्र से मार्ग देने की विनती करूंगा क्योंकि वह हमारे कुलपूज्य है | *लक्ष्मण* युद्ध सदैव घातक होता है जब कोई मार्ग न बचे तो ही युद्ध करना चाहिए | *लक्ष्मण !* तुम चिंता ना करो , धैर्य धारण करो क्योंकि संकट में मनुष्य का सच्चा मित्र उसका स्वयं का धैर्य ही होता है | ऐसा कहकर भगवान् श्रीराम समुद्र के किनारे कुशासन पर बैठ गए |
विभीषण के पीछे रावण ने दो गुप्तचर भेजे थे , शुक एवं सारण नाम के गुप्तचर वानरों का वेश बनाकर रामा दल में भ्रमण करते हुए पकड़े गए | वानर वीरों ने उन्हें प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया | सुग्रीव ने कहा इनको अंग भंग करके तब भेजो | शुक एवं सारण ने जब देखा कि वो से घिर गए हैं तो श्रीराम की दुहाई देने लगे | यहां पर एक चौपाई कुछ लोगों को भ्रम में डाल देती है | तुलसीदासजी लिखते हैं :---
*सुनि लछिमन सब निकट बोलाये !*
*दया लागि हँसि तुरत छोड़ाये !!*
जब *लक्ष्मण जी* ने देखा कि बानरवीर रावण के गुप्तचरों को दंडित कर रहे हैं तो उनको दया आ गयी और उन्होंने हंसकर दोनों को छुड़ा दिया | कुछ लोग कहते हैं कि *लक्ष्मण जी* यहां अपने स्वभाव के विपरीत कुछ भी हो सकता है लोग *लक्ष्मण जी* को क्रोधी ओम उतावला समझते हैं | परंतु *भगवत्प्रेमी सज्जनों !* *लक्ष्मण जी* क्या है ?? यह जानने के लिए हमें तुलसीदास जी के द्वारा कहे गये उनके वचनों पर ध्यान देना होगा | तुलसीदास जी *लक्ष्मण जी* को अपना गुप्तधन मानते हैं | जो गुप्तधन है , जिसको गोस्वामी जी ने छुपा कर रखा है वह क्रोधी एवं उतावला कैसे हो सकता है | जो लोग ऐसा समझते हैं उनको ध्यान देना चाहिए कि गोस्वामी जी ने बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है :--
*वन्दउँ लछिमन पद जलजाता !*
*सीतल सुभग भगत सुखदाता !!*
*लक्ष्मण जी* उग्र होते हुए भी *शीतल* है | इस शीतलता का रहस्य यह है कि *लक्ष्मण जी* "शेषावतार हैं | शीतलता सर्प का सहज गुण है | विषधर होने पर भी उसका शरीर सदैव शीतल बना रहता है | परंतु यह शीतलता तब तक ही रहती है जब तक कि सर्पको कोई छेड़े ना | यदि भूल से भी किसी ने सर्प को छेड़ दिया तो यही शीतलता विष बनकर प्राणघातक हो जाती है | उसी प्रकार से *लक्ष्मण जी* का स्वभाव बहुत ही सरल एवं शीतल है , परंतु शत्रुओॉ के लिए यही शीतल स्वभाव वाले *लक्ष्मण जी* अपनी विषैले वाणों के साथ घातक हो जाते हैं | *सुभग* अर्थात सुंदर | *लक्ष्मण जी* शरीर से तो सुंदर थे ही साथ ही मन के भी बहुत ही निश्चल एवं सुंदर थे | यदि ऐसा न होता तो अयोध्या का राजसी जीवन त्याग कर श्री राम की सेवा मात्र के लिए बनवासी ना होते | *लक्ष्मण जी* का ऐसा करना उनके मन की सुंदरता को दर्शाता है | *भगत सुखदाता* अपने एवं श्री राम के भक्तों को असीम सुख प्रदान करने वाले हैं *लक्ष्मण जी* | इसका उदाहरण गंगा के तट पर देखने को मिलता है जब उन्होंने श्रीराम की दशा देखकर दुखी हुए निषादराज को *कर्ममीमांसा* का ज्ञान प्रदान करके उसके सारे दुखों का हरण करके सुख प्रदान किया | इस प्रकार *लक्ष्मण जी* शीतलता एवं दयालुता की मूर्ति थी | ऐसे *लक्ष्मण जी* ने जब देखा कि रावण के गुप्तचरो को दंड मिल रहा है तो उनके हृदय में दया उमड़ पड़ी | उन्होंने प्रेम से दोनों को बुलाया और उनको एक पत्र देते हुए कहा :- हे गुप्तचरो ! तुम निर्भय होकर जाओ और अपने अहंकारी राजा को यह पत्र देकर मेरा संदेश कह देना | *लक्ष्मण जी* कहते हैं :---
*कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेश उदार !*
*सीता देइ मिलहुँ न त आवा कात तुम्हार !!*
*लक्ष्मण जी* कहते हैं कि यह पत्र देने के बाद भी तुम रावण से मेरा उदार ( कृपा से भरा हुआ ) संदेश मुंहजबानी भी कह देना कि :- यदि जीवित रहने की इच्छा है तो माता सीता को लाकर श्रीराम को सौंप दे और उनकी शरण में आ जाय अन्यथा उसका काल उसके सिर पर नाच रहा है | शुक एवं सारण *लक्ष्मण जी* का पत्र लेकर उनका एवं श्री राम का गुणगान करते हुए आकाश मार्ग से लंका की ओर चल पड़े |
*शेष अगले भाग में :----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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